Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ सूत्र ७ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । कर्मका संचय होता है । इन्द्रियाँ पाँच हैं । उनमें से प्रत्येकका विचार करने योग्य स्वरूप इस प्रकार है— स्पर्शन – जिसको अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं, अनेक बड़ी बड़ी और छोटी छोटी विद्याओंके बलसे परिपूर्ण था, तथा जो आकाशमें गमन करनेवाला, और जो अष्टाङ्ग महानिमित्तशास्त्रोंका पारगामी था, ऐसा गार्ग्य गोत्र में उत्पन्न हुआ सात्यकि - महादेव इस इन्द्रियमें आसक्त- - लीनचित्त रहने के कारण ही मृत्युको प्राप्त हुआ । शास्त्रोंमें इसका स्पष्ट वर्णन है । इससे स्पर्शनेन्द्रियकी आसक्तिका दोनों ही भवोंमें अवद्यरूप ( गर्हित- त्याज्य ) जो फल प्राप्त होता है, वह सिद्ध होता है । इसके सिवाय प्रत्यक्षमें भी देखा जाता है, कि जिस वनमें घास तृण वृक्ष आदि खाद्य-सामग्री और जल प्रचुररूपमें पाया जाता है, और इसी लिये उस वनमें यथेच्छ अवगाहन करने आदि गुणोंसे सम्पन्न - परिपूर्ण रहकर स्वतन्त्र विहार करनेवाले मदोन्मत्त और बलवान् भी हस्ती इस स्पर्शनेन्द्रियमें आसक्तचित्त होकर हस्तिबन्धकियोंमें फँस जाते हैं, और पकड़े जाकर बंधनको प्राप्त हो जाते हैं । तथा इसके अनन्तर बंधन वध दमन वाहन सवारी और अंकुशके द्वारा दोनों भागोंमें व्यथित होने तथा अभिघात - मार प्रभृति अनेक कारणोंसे उत्पन्न तीव्र दुःखोंका अनुभव किया करते हैं, और जिसमें कि अपने झुण्डके साथ साथ स्वच्छन्द घूमने के सुखका अनुभव किया करते थे, उस वनवासको सदा याद किया करते हैं । ४०१ तथा खिच्चरी मैथुन सुखके लोभमें फँसकर जब गर्भवती हो जाती है, तब वह प्रसवकै समय बच्चेको पैदा नहीं कर सकती, और उसकी तीव्र वेदनासे अभिहत होकर विवश हुई मृत्युको प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियमें अत्यासक्ति रखनेवाले सभी प्राणियोंको इस लोक तथा परलोकमें विनिपात - विनाशको प्राप्त होते हुए ही देखा जाता है । रसनेन्द्रिय-इस इन्द्रियके वशमें पड़े हुए प्राणी भी दोनों भवोंमें क्लेशको ही प्राप्त होते हैं । इस लोक में उनका क्लेश प्रत्यक्ष सिद्ध है । जिस प्रकार मरे हुए हाथी के शरीरपर बैठा हुआ १ - - जैन धर्म में ११ रुद्र माने हैं, जोकि चतुर्थकालमें हो चुके हैं। उनमें से अंतिम रुद्रका नाम सात्यकी है । इनकी कथा शास्त्रों में वर्णित है । यशस्तिलक चम्पू, आराधनाकथाकोष आदि ग्रंथोंमें इनकी उत्पत्ति आदिका खुलासा वर्णन किया है, सो वहाँपर या अन्य कथा - पुराण - ग्रंथों में देखना चाहिये । उसका सारांश यही है, कि ये मुनि और आर्यिका भ्रष्ट हो जानेसे उत्पन्न होते हैं। दीक्षा धारण करके ११ अंग ९ पूर्वतकके पाठी होते हैं । जब अध्ययनम कर चुकते हैं, तब ५०० महाविद्याएं और ७०० क्षुल्लक-छोटी विद्याएं आकर उनसे अपना स्वामी बनने की प्रार्थना किया करती हैं । वे भी उनके लोभमें आकर तपस्या से भ्रष्ट हो जाते हैं, और स्पर्शनेन्द्रियके विषयों में रत होकर आयुक्रे अन्तमें दुर्गति को जाया करते हैं । अष्टाङ्ग महानिमित्त शास्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- १ अंतरीक्ष २ भौम ३ अंग ४ स्वर ५ स्वप्न ६ लक्षण ७ व्यञ्जन ८ छिन्न । २- घास तृण आदिको उछालना, अपने ऊपर उछालकर डाल लेना, उनका उखाड़ना तोड़ना फेंकना और जलमें विलोडन - मंथन आदि करना । ३ – हाथियों को पकड़नेके लिये एक खड्डा बनाया जाता है, और शिक्षित हाथियों या हथिनियों के द्वारा उसमें लाकर वह जंगली हाथी फँसाया जाता है । उसको हस्थिबंधकी कहते हैं । ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498