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रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम्
[ नवमोऽध्यायः
फुलेल आदि सुगन्ध द्रव्य लगाकर और पुष्पमाला आदिको धारण करके भी सुगन्धित नहीं बना सकते । इस तरह कोई भी उपाय करके इसकी अशुचिता दूर नहीं की जा सकती । क्योंकि स्वभावसे ही यह शरीर अशुचिरूप है, और शुचिताका उपघातक-नाशक है । इस कारणसे भी शरीर अशुचि ही है।
इस तरह अनेक प्रकारसे शरीरकी अपवित्रताके चिन्तवन करनेको अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते हैं । निरंतर इस तरहकी भावना करनेवाला जीव शरीरके विषयमें निर्वेद-वैराग्यको प्राप्त हो जाता है, और निर्विण्ण होकर शरीरका नाश-मोक्षको प्राप्त करनेके लिये ही चेष्टा किया करता है । इस प्रकार अशुचित्वानुप्रेक्षाका वर्णन किया ॥ ६ ॥
भाष्यम्-आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्ग. मद्वारभूतानिन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा-स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्या बलसम्पन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गनिमित्तपारगो गार्ग्यः सत्यकिनिधनमाजगाम । तथा प्रभूतश्वसोदकप्रमाथावगाहादिगुणसम्पन्नवनविचारिणश्च मदोत्कटा बलवन्तोऽपि हस्तिनो हस्तिबन्धकीषु स्पर्शनेद्रियसक्तचित्ता ग्रहणमुपगच्छन्ति । ततो बन्धवधदमनवाहनाकुशपाणिप्रतोदाभिघातादिजनितानि तीव्राणि दुःखान्यनुभवन्ति । नित्यमेव स्वयूथस्य स्वच्छन्दप्रचारसुखस्य वनवासस्यानुस्मरन्ति । तथा मैथुनसुखप्रसङ्गादाहितगर्भाश्वतरी प्रसवकाले प्रसवितुमशक्नुवन्ती तीव्रदुःखाभिहताऽवशा मरणमभ्युपैति । एवं सर्वे एव स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्ता इहामुत्र च विनिपातमृच्छन्तीति। तथा जिह्वेन्द्रियप्रसक्ता मृतहस्तिशरीरस्थस्रोतोवेगोढवायसवत् हैमनघृतकुम्भप्रविष्टमूषिकवत् गोष्ठप्रसक्तहदवासिकूर्मवत् मांसपेशीलुब्धश्येनवत् वडिशामिषगृद्धमत्स्यवच्चेति। तथा प्राणेन्द्रियप्रसक्ता ओषधिगन्धलुब्धपन्नगवत् पललगन्धानुसारिमूषिकवञ्चति । तथा चक्षुरिन्द्रियप्रसक्ताः स्त्रीदर्शनप्रसङ्गादर्जु. नकचोरवत् दीपालोकलोलपतङ्गवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । तथा श्रोत्रेन्द्रियप्रसतास्तित्तिरकपोतकपिञलवत् गीतसंगीतध्वनिलोलमृगवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । एवं चिन्तयन्नास्रवनिरोधाय घटत इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥७॥
अर्थ-सातवीं भावनाका नाम आस्रवानुप्रेक्षा है । कर्मोके आनेके मार्गको आस्रव कहते हैं। आस्रवोंके भेद पहले बता चुके हैं। फलतः ये सभी आस्रव इस लोक तथा परलोक दोनों ही भवमें अपायपूर्ण-दुःखदायी हैं। दुःखोंके कारण तथा आत्माको कल्याणसे वंचित रखनेवाले हैं। जिस प्रकार बड़ी बड़ी नदियोंके प्रवाहका वेग अति तीक्ष्ण होता है, और अकुशल-अकल्याणके आगमन-प्रवेश और कुशल-कल्याणके निर्गम-बाहर निकलनेका कारण-द्वार हुआ करता है। उसी प्रकार ये इन्द्रिय आदि आस्रव भी जीवोंको अकल्याणसे युक्त कराने और कल्याणसे वंचित रखनेके लिये मार्ग हैं । इस प्रकार संवरके अभिलाषी साधुओंको इनकी अवद्यता-अधमताका विचार करना चाहिये। जिनके द्वारा काँका आस्रव होता है, उनमें इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष दीखनेवाले ऐसे कारण हैं, कि जिनसे जीवको इसी भवमें क्लेश सहन करना पड़ता है । परलोकके लिये भी इनसे अशुभ
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