Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ ४०० रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः फुलेल आदि सुगन्ध द्रव्य लगाकर और पुष्पमाला आदिको धारण करके भी सुगन्धित नहीं बना सकते । इस तरह कोई भी उपाय करके इसकी अशुचिता दूर नहीं की जा सकती । क्योंकि स्वभावसे ही यह शरीर अशुचिरूप है, और शुचिताका उपघातक-नाशक है । इस कारणसे भी शरीर अशुचि ही है। इस तरह अनेक प्रकारसे शरीरकी अपवित्रताके चिन्तवन करनेको अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते हैं । निरंतर इस तरहकी भावना करनेवाला जीव शरीरके विषयमें निर्वेद-वैराग्यको प्राप्त हो जाता है, और निर्विण्ण होकर शरीरका नाश-मोक्षको प्राप्त करनेके लिये ही चेष्टा किया करता है । इस प्रकार अशुचित्वानुप्रेक्षाका वर्णन किया ॥ ६ ॥ भाष्यम्-आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशलागमकुशलनिर्ग. मद्वारभूतानिन्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा-स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्या बलसम्पन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गनिमित्तपारगो गार्ग्यः सत्यकिनिधनमाजगाम । तथा प्रभूतश्वसोदकप्रमाथावगाहादिगुणसम्पन्नवनविचारिणश्च मदोत्कटा बलवन्तोऽपि हस्तिनो हस्तिबन्धकीषु स्पर्शनेद्रियसक्तचित्ता ग्रहणमुपगच्छन्ति । ततो बन्धवधदमनवाहनाकुशपाणिप्रतोदाभिघातादिजनितानि तीव्राणि दुःखान्यनुभवन्ति । नित्यमेव स्वयूथस्य स्वच्छन्दप्रचारसुखस्य वनवासस्यानुस्मरन्ति । तथा मैथुनसुखप्रसङ्गादाहितगर्भाश्वतरी प्रसवकाले प्रसवितुमशक्नुवन्ती तीव्रदुःखाभिहताऽवशा मरणमभ्युपैति । एवं सर्वे एव स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्ता इहामुत्र च विनिपातमृच्छन्तीति। तथा जिह्वेन्द्रियप्रसक्ता मृतहस्तिशरीरस्थस्रोतोवेगोढवायसवत् हैमनघृतकुम्भप्रविष्टमूषिकवत् गोष्ठप्रसक्तहदवासिकूर्मवत् मांसपेशीलुब्धश्येनवत् वडिशामिषगृद्धमत्स्यवच्चेति। तथा प्राणेन्द्रियप्रसक्ता ओषधिगन्धलुब्धपन्नगवत् पललगन्धानुसारिमूषिकवञ्चति । तथा चक्षुरिन्द्रियप्रसक्ताः स्त्रीदर्शनप्रसङ्गादर्जु. नकचोरवत् दीपालोकलोलपतङ्गवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । तथा श्रोत्रेन्द्रियप्रसतास्तित्तिरकपोतकपिञलवत् गीतसंगीतध्वनिलोलमृगवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । एवं चिन्तयन्नास्रवनिरोधाय घटत इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥७॥ अर्थ-सातवीं भावनाका नाम आस्रवानुप्रेक्षा है । कर्मोके आनेके मार्गको आस्रव कहते हैं। आस्रवोंके भेद पहले बता चुके हैं। फलतः ये सभी आस्रव इस लोक तथा परलोक दोनों ही भवमें अपायपूर्ण-दुःखदायी हैं। दुःखोंके कारण तथा आत्माको कल्याणसे वंचित रखनेवाले हैं। जिस प्रकार बड़ी बड़ी नदियोंके प्रवाहका वेग अति तीक्ष्ण होता है, और अकुशल-अकल्याणके आगमन-प्रवेश और कुशल-कल्याणके निर्गम-बाहर निकलनेका कारण-द्वार हुआ करता है। उसी प्रकार ये इन्द्रिय आदि आस्रव भी जीवोंको अकल्याणसे युक्त कराने और कल्याणसे वंचित रखनेके लिये मार्ग हैं । इस प्रकार संवरके अभिलाषी साधुओंको इनकी अवद्यता-अधमताका विचार करना चाहिये। जिनके द्वारा काँका आस्रव होता है, उनमें इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष दीखनेवाले ऐसे कारण हैं, कि जिनसे जीवको इसी भवमें क्लेश सहन करना पड़ता है । परलोकके लिये भी इनसे अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498