Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 415
________________ ३९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः है-तत्त्वके जिज्ञासुओंका जो तात्पर्य है-जिस अंश या विषयको वे समझना चाहते हैं, उसको लेकर ही जो प्रवृत्त होता है, अपना और परका-दोनोंका ही अनुग्रह करनेवाला है, वञ्चना आदि दोषोंसे जो रहित है, देश कालकी अनुकूलताको जो रखनेवाला है, जो अवद्यतासे-अधमतासे मुक्त और अरहंत भगवान्के शासनका अनुगामी होनेके कारण प्रशस्त है, तथा जो संयत परिमित याचन पृच्छन और प्रश्नव्याकरणरूप है वह सत्य वचन ही सत्य-धर्म समझना चाहिये। ऐसे वचनसे ही संवरकी सिद्धि हुआ करती है । भावार्थ-अनृत-असत्यका स्वरूप पहिले बता चुके हैं। उससे जो उल्टा है, वह सत्य है । उसको वहाँ व्रतरूपसे कहा है । यहाँपर धर्मरूपसे सत्यका व्याख्यान करते हैं । अतएव जो वचन उपर्युक्त दोषोंसे रहित है, और उक्त गुणोंसे युक्त है, वह चाहे उपदेशरूप हो, या अभिलाषाका द्योतक-प्रकाश करनेवाला हो, या प्रश्नरूप हो, अथवा प्रश्नके उत्तररूप हो, सभी धर्म है, और संवरका साधक है। सत्य शब्द सत् शब्दसे भव अथवा हित अर्थमें यत् प्रत्यय होकर बनता है । वचनरूप सत्यधर्म कैसा होता है, सो यहाँपर संक्षेपमें बताया है, विशेष जिज्ञासुओंको ग्रन्थान्तरोंसे जानना चाहिये ॥ ५ ॥ __ भाष्यम्-योगनिग्रहःसंयमः। स सप्तदशविधः। तद्यथा-पृथिवीकायिकसंयमः, अप्कायिकसंयमः, तेजस्कायिकसंयमः, वायुकायिकसंयमः, वनस्पतिकायिकसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, त्रीन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, पञ्चेन्द्रियसंयमः; प्रेक्ष्यसंयमः, उपेक्ष्यसंयमः, अपहृत्यसंयमः,प्रमृज्यसंयमः, कायसंयमः, वाकूसंयमः, मनःसंयमः, उपकरणसंयम इति संयमो धर्मः॥६॥ ___अर्थ-योगका लक्षण पहले बता चुके हैं, कि मन वचन कायके कर्मको योग कहते हैं । इस योगके निग्रह करनेको संयम कहते हैं। निग्रह नाम निरोधका है । अर्थात् मन वचन कायके वश न होना, किन्तु उनको अपने वशमें रखना, उसको संयम-धर्म कहते हैं । अथवा अवद्यकर्म हिंसा आदि या इन्द्रियोंके विषयोंसे मन वचन कायको उपरत-उदासीन रखनेका नाम संयम है। इसके सत्रह भेद हैं। यथा-पृथिवीकायिकसंयम, अपकायिकसंयम, तेजस्कायिकसंयम, वायुकायिकसंयम, वनस्पतिकायिकसंयम, द्वीन्द्रियसंयम, त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पञ्चेन्द्रियसंयम, प्रेक्ष्यसंयम, उपेक्ष्यसंयम, अपहृत्यसंयम, प्रमृज्यसंयम, कायसंयम, वाक्संयम, मनःसंयम, और उपकरणसंयम । १--जो संयमकी प्रधानता रखकर प्रवृत्त हो, उसको संयत, जो शब्दकी अपेक्षा संक्षिप्त हो, उसको परिमित, हे भगवन् ; इसका स्वरूप कहिये, इस तरहसे जो प्रार्थनारूप हो, उसको याचन, और प्रश्नरूपको पृच्छन तथा प्रश्नके सम्बन्धको लेकर उत्तररूपमें किये गये व्याख्यानको प्रश्नव्याकरण कहते हैं। २---गुप्तिका भी यही लक्षण सूत्रकारने लिखा है । यथा-“सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥” दिगम्बर-सम्प्रदायमें संयमका लक्षण इस प्रकार लिखा है-“समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः ।" तथा " वदसमिदिकसायाणं, दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं । धारणपालणणिग्गहचागजओ संजमो भणिओ ॥ ४६४ ॥ गोम्मटसार जीवकांड. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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