Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 422
________________ ३९७ सूत्र ७।] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जीव एक ही रहता है, और उसीको उनका फल भोगना पड़ता है। अपने सिवाय और कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो कि कर्म-फलके भोगनेमें एक सूक्ष्म अंशका भी भागीदार हो सके। अतएव ऐसी भावनाको निरन्तर रखनेवाला जीव किसी भी अवस्थामें हतशक्ति नहीं होता और न किसीसे राग द्वेषका अनुबंध ही करता है । किन्तु पूर्ण और शुद्ध एकता-निर्वृत्तिके लिये ही प्रयत्नशील हुआ करता है । इस प्रकारकी अपनी एकाकिताके चिन्तवनको एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं, और उसका फल निःसङ्गताकी सिद्धि तथा मोक्ष-पुरुषार्थका साधन ही है ॥ ४ ॥ भाष्यम्--शरीरव्यतिरेकेणात्मानमनुचिन्तयेत् । अन्यच्छरीरमन्योऽहम् । ऐन्द्रियक शरीरमतीन्द्रियोऽहम्, अनित्यं शरीरं नित्योऽहम्, अझं शरीरं ज्ञोऽहम्, आद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् । बहूनि च मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः । स एवायमहमन्यस्तेभ्य इत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः शरीरप्रतिवन्धो न भवतीति। अन्यश्च शरीरान्नित्योऽहमिति निःश्रेयसे संघटत इत्यन्यत्वानुपेक्षा ॥ ५॥ - अर्थ--अन्यत्वानुप्रेक्षाका आशय यह है, कि शरीरसे अपनी आत्माकी भिन्नताका चिन्तवन करना । यथा-मैं शरीरसे सर्वथा भिन्न हूँ । क्योंकि शरीर ऐन्द्रिय-इन्द्रियगोचर मूर्त है, और मैं अनिन्द्रिय-अमूर्त हूँ, शरीर अनित्य है-आयुपूर्ण होते ही विघटित हो जाता है, अथवा उसके पहले भी अनेक प्रकारसे विशीर्ण होता रहता है, और मैं नित्य हँ-कभी नष्ट अथवा विशीर्ण नहीं होता, शरीर अज्ञ-ज्ञानशून्य है, और मैं ज्ञ-ज्ञान दर्शनरूप हूँ, शरीर आदि और अन्तसे युक्त है क्योंकि वह उत्पन्न होता और नष्ट भी होता है, किन्तु मैं इन दोनों ही धर्मोंसे रहित हूँ-मैं अनादि और अनन्त हूँ । संसारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे न मालूम कितने लक्ष शरीर बीत गये, किन्तु मैं यह वही उन सबसे भिन्न बना हुआ हूँ । इस प्रकार शरीरसे अपनी भिन्नताका बार बार विचार करना चाहिये । इस तरहसे विचार करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । जो जीव निरन्तर इस प्रकारका चिन्तवन किया करता है, उसको शरीरमें प्रतिबन्ध-ममत्वभाव नहीं होता, और वह ऐसा समझ करके कि अनित्य शरीरसे नित्य मैं सर्वथा भिन्न ही हूँ, निःश्रेयस-पदकी सिद्धिके लिये ही प्रयत्न किया करता है । यह अन्यत्वानुप्रेक्षाका वास्तविक फल है । यह सब अन्यत्वानुप्रेक्षाका स्वरूप समझना चाहिये । भाष्यम्-अशुचि खल्विदं शरीरमिति चिन्तयेत् । तत्कथमशुचीति चेदाद्युत्तरकारणाशुचित्वादशुचिभाजनत्वादशुच्युद्भवत्वादशुभपरिणामपाकानुबंधादशक्यप्रतीकारत्वाच्चेति। तत्राद्युत्तरकारणाशुचित्वात्तावच्छरीरस्याचं कारणं शुक्र शोणितं च तदुभयमत्यन्ताशुचीति उत्तरमाहारपरिणामादि । तद्यथा-कवलाहारो हि ग्रस्तमात्र एव श्लेष्माशयं प्राप्य श्लेष्मणा द्रवीकृतोऽत्यन्ताशुचिर्भवति । ततः पित्ताशयं प्राप्य पच्यमानोऽम्लीकृतोऽशुचिरेव भवति । पक्को वाय्वाशयं प्राप्य वायुना विभज्यते पृथक्खलः पृथकूरसः । खलान्मूत्रपुरीषादयो मला: प्रादुर्भवन्ति, रसाच्छोणितं परिणमति, शोणितान्मांसम्, मांसान्मेदः, मेदसोऽस्थीनि, अस्थिभ्यो मज्जा, मज्जाभ्यः शुक्रमिति सर्व चैतच्श्लेष्मादिशुक्रान्तमशुचिर्भवति तस्मादायुत्तरकारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498