Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 397
________________ ३७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽध्यायः क्रियाकी परिसमाप्ति जिसके निमित्तसे हो, उसको शरीरपर्याप्ति कहते हैं । संस्थापन शब्दका आशय यह है, कि शरीररूप रचना या घटन । स्पर्शन आदि इन्द्रियोंकी रचना जिसके द्वारा सिद्ध हो, उस क्रियाकी जिससे परिसमाप्ति हो जाय, उसको इन्द्रियपर्याप्त कहते हैं । श्वासो - छास क्रिया के योग्य पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करने या छोड़ने की शक्ति जिससे सिद्ध हो, ऐसी क्रियाकी परिसमाप्ति जिससे हो, उसको प्राणापानपर्याप्ति कहते हैं । भाषा - वचन के योग्य पुद्गल द्रव्यको ग्रहण करने या छोड़ने की शक्तिकी जिससे निवृत्ति हो, उस क्रियाकी जिससे परिसमाप्ति हो, उसको भाषापर्याप्ति कहते हैं । कोई कोई आचार्य एक छुट्टी मनःपर्याप्ति भी बताते हैं, जिसका कि अर्थ इस प्रकार करते हैं, कि मन - द्रव्यमनके योग्य पुद्गल द्रव्यको ग्रहण और विसर्ग-त्यागकी शक्तिको निष्पन्न करनेवाली क्रियाकी जिससे परिसमाप्ति होजाय, उसको मनः पर्याप्ति कहते हैं । जिस प्रकार सूतका जो कपड़ा बुना जाता है, उसमें समस्त क्रियाओं का प्रारम्भ एक साथ ही होजाता है, किन्तु उनकी पूर्णता क्रमसे होती है। इसी प्रकार लकड़ीके कतरने आदिके विषय में सत्र कामका प्रारम्भ युगपत् और उनकी समाप्ति क्रमसे होती है, इसी तरह पर्याप्तियोंके विषयमें भी समझना चाहिये | इनका भी आरम्भ युगपत् और पूर्णता क्रमसे होती है । जिस जीवके जितनी पर्याप्ति संभव हैं, उसके उनका आरम्भ एक साथ ही हो जाता है, किन्तु पूर्णता क्रमसे होती है। क्योंकि ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । इनके क्रमसे ये दृष्टान्त हैं — गृह-निर्माणके योग्य वस्तुओंका ग्रहण, स्तंभ, स्थूणा - थूनी और द्वार, तथा जाने आनेके स्थान एवं शयन आदि क्रिया । ये जिस प्रकार कमसे हुआ करते हैं, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । ऊपर जो पर्याप्तिके भेद गिनाये हैं, उनकी जिससे निर्वृत्ति हो, उसको पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं, और जिससे इनकी निर्वृत्ति न हो, उसको अपर्याप्तिनामकर्म कहते हैं । तत्तत्परिणमनके योग्य स्कन्धरूप पुद्गलद्रव्यको जीव ग्रहण नहीं करता, यही अपर्याप्तिका तात्पर्य है । जिसके निमित्त से शरीर के अङ्गोपाङ्ग और धातु उपधातु स्थिर रहें - अपने रूपमें अथवा यथास्थान रहें, उसको स्थिरनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे इसके विपरीत क्रिया हो, उसको अस्थिरनामकर्म कहते हैं । जिसके निमित्तसे कान्तियुक्त शरीर हो, उसको आदेय और इसके विपरीत जिसके निमित्त से कान्तिरहित शरीर हो, उसको अनादेयनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे जीवकी कीर्ति हो, उसको यशोनाम और इसके विपरीत जिसके निमित्तसे जीव की अपकीर्ति हो, या कीर्ति न हो, उसको अयशोनामकर्म कहते हैं । I अन्तिम भेद तीर्थकर नामकर्म है । उसका अभिप्राय यही है, कि जिसके उदयसे तीर्थ. करत्व सिद्ध हो। तीर्थकी प्रवृत्ति और समवसरणकी विभूति आदिकी रचना तथा कल्याणकोंकी निष्पत्ति आदि इसी कर्मके फल हैं । इसी अंतरङ्ग कारणके उदयसे समवसरण में स्थित अरिहंत भगवान्की दिव्यदेशना प्रवृत्त हुआ करती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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