Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 378
________________ अष्टमोऽध्यायः। आस्रव तत्त्वका व्याख्यान गत दो अध्यायों में हो चुका । उसके अनंतर क्रमानुसार बंधका वर्णन होना चाहिये । इस बातको लक्ष्यमें रखकर भाष्यकार कहते हैं कि-- भाष्यम्--उक्त आस्रवः, बंधं वक्ष्यामः तत्मसिद्धयर्थमिदमुच्यतेः अर्थ--आस्रव-तत्त्वका निरूपण हो चुका । अब यहाँसे बन्ध-तत्त्वका वर्णन करेंगे । अतएव उसको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं:-- सूत्र-मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगाबन्धहेतवः॥१॥ भाष्यम्-मिथ्यादर्शनं अविरतिः प्रमादः कषाया योगा इत्येते पञ्च बन्धहेतवो भवन्ति । तत्र सम्यग्दर्शनाद्विपरीतं मिथ्यादर्शनम् । तद्विविधमभिगृहीतमनभिगृहीतं च । तत्राभ्युपेत्या सम्यग्दर्शनपरिग्रहोऽभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणांत्रिषष्ठानांकुवाादशतानाम्।शेषनभिगृहीतम्।यथोक्ताया विरतेविपरीताविरतिः॥प्रमादास्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः । कषाया मोहनीये वक्ष्यन्ते । योगस्त्रिविधः पूर्वोक्तः । एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्सति नियतमुत्तरेषां भावः। उत्तरोत्तरभावेतु पूर्वेषामनियमः इति॥ अर्थ-बन्धके कारण पाँच हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग । पहले सम्यग्दर्शनका स्वरूप बता चुके हैं, कि तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। उससे जो विपरीत अवस्था हो, उसको मिथ्यादर्शन कहते हैं। अर्थात् मिथ्यादर्शन नाम अतत्त्व श्रद्धानका है । वह दो प्रकारका होता है, एक अभिगृहीत और दूसरा अनभिगृहीत । आज्ञानिक आदि तीन और तीनसौ साठ कुल मिलाकर तीन सौ त्रेसठ कुवादियों-मिथ्यादृष्टियोंको जो प्राप्त होकर-अतत्त्वोपदेशको पाकर असम्यग्दर्शनका ग्रहण होता है, उसको अभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। अर्थात् दुसरेके उपदेशको सुनकर और ग्रहण करके जो अतत्व श्रद्धान होता है, उसको गृहीत अथवा अभिग्रहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। इसके सिवाय जो परोपदेशसे प्राप्त नहीं होता, अथवा जो अनादिकालसे जीवोंके लगा हुआ है, ऐसे अतत्त्व श्रद्धानको अनभिग्रहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। पहले विरतिका स्वरूप बता चुके हैं। उसके न होनेको अविरति कहते हैं । अर्थात् हिंसा आदिरूप परिणति होना, या इसके त्यागका न होना अविरति है। मोक्षमार्गसम्बन्धी विषयका स्मरण न रहना, उत्तम कार्योंके विषयमें अथवा उत्तम पुरुषों के विषयमें अनादर भाव होना, उनमें भक्तिभाव का न होना, और मन वचन कायरूप योगोंका ठीक उपयोग न होना-उनका अनुचित अथवा अयोग्य उपयोग करना, इत्यादि सब प्रमाद कहाता है। कषायोंका स्वरूप आगे चलकर मोहनीयकर्मके स्वरूप और भेदोंका जहाँ व्याख्यान ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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