Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 383
________________ रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टमोऽध्यायः के उदयसे मोहित हुआ जीव किसीको इष्ट और किसीको अनिष्ट मानता है । तथा वेदनीयकर्मके उदयसे इष्टके लाभमें सुखका और अनिष्टके लाभमें दुःखका अनुभव करता है। ___क्रमानुसार मोहनीयकर्मके अट्ठाईस भेदोंको गिनाते हैं: - सूत्र--दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः कोधमानमायालोमा हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः१० भाष्यम्-त्रिद्विषोडशनवभेदा यथाक्रमम् । मोहनीयबन्धो द्विविधो दर्शनमोहनीया. ख्यश्चारित्रमोहनीयाख्यश्च । तत्र दर्शनमोहनीयाख्यस्त्रिभेदः । तद्यथा-मिथ्यात्ववेदनीयम्, सम्यक्त्ववेदनीयम्, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयमिति । चारित्रमोहनीयाख्यो विभेदः कषायवेदनी. यम् नोकषायवेदनीयं चेति । तत्र कषायवेदनीयाख्यः षोडशभेदः । तद्यथा--अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभ एवमप्रत्याख्यानकषायः प्रत्याख्यानावरणकषायः संज्वलनकषाय इत्येकशः क्रोधमानमायालोभाः षोडश भेदाः॥ नोकषायवेदनीयं नवभेदम् । तद्यथा- हास्यं रतिः अरतिः शोकः भयं जुगुप्सा पुरुषवेदः स्त्रीवेदः नपुंसकवेद इति नोकषायवेदनीयं नव प्रकारम् । तत्र पुरुषवेदादीनां तृणकाष्ठकरीषाग्नयो निदर्शनानि भवन्ति । इत्येवं मोहनीय मष्टाविंशतिभेदं भवति॥ अर्थ--मोहनीयकर्मके उत्तरभेद क्रमसे तीन दो सोलह और नव हैं। क्योंकि मोहनीयकर्मके दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय इन चार भेदोंका चारों संख्याओंके साथ यथाक्रम है। मूलमें मोहनीयकर्म दो प्रकारका है-एक दर्शनमोहनीय दूसरा चारित्रमोहनीय । इनमेंसे पहले दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं ।--मिथ्यात्ववेदनीय सम्यक्त्ववेदनीय और सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय । चारित्रमोहनीयके दो भेद हैं ।--एक तो कषायवेदनीय और दूसरा नोकषायवेदनीय । इनमेंसे कषायवेदनीयके सोलह भेद हैं। वे इस प्रकार हैं कि--अनन्तानबन्धी क्रोध मान माया और लोभ । इसी तरहसे अप्रत्याख्यानकषाय, प्रत्याख्यानावरणकषाय, और संज्वलनकषाय, इनके भी प्रत्येकके क्रोध मान माया और लोभ इस तरह चार चार भेद हैं। चारोंके मिलाकर सोलह भेद होते हैं । क्योंकि मूलमें कषाय चार प्रकारका है--क्रोध मान माया और लोभ । इनमेसे प्रत्येकके अनन्तानुबन्धी आदि चार चार भेद हैं । अतएव सब मिलकर सोलह भेद हो जाते हैं । यथा----अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ । अप्रत्याख्यान क्रोध अप्रत्याख्यान मान, अप्रत्याख्यान माया, अप्रत्याख्यान लोभ । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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