Book Title: Sabhasyatattvarthadhigamsutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Khubchand Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 360
________________ सूत्र १४-१५-१६ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३३५ सूत्र-दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥ १६ ॥ भाष्यम्-एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी व्रती भवति । तत्र दिग्वतं नाम तिर्यगूर्ध्वमधो वा दशानां दिशां यथाशक्ति गमनपरिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेवर्थतोऽनयंतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षपः । देशव्रतं नामापवरकगृहग्रामसीमादिषु यथाशक्ति प्रविचाराय परिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेष्वर्थतोऽनयंतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः॥ अनर्थदण्डो नामोपभोगपरिभोगावस्यागारिणो तिनोऽर्थः । तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः । तदर्थो. दण्डोऽनर्थदण्डः । तद्विरतिव्रतम् । सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः। पौषधोपवासो नाम पौषधे उपवासः पौषधोपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् ! सोऽष्टमी चतुर्दशी पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाापवासिना व्यपगतस्नानालेपनगन्धमाल्यालंकारेण न्यस्तसर्वसावधयोगेन कुशसंस्तरफलकादीनामन्यतमं संस्तरमास्तीर्य स्थानं वीरासननिषद्यानां वान्यतममास्थाय धर्मजागरिकापरेणानुष्ठेयो भवति ॥ उपभोगपरिभोगव्रतं नामाशनपानर्रवाधस्वाद्यगन्धमाल्यादीनामाच्छदनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादीनां च बहुसावद्यानां वर्जनम् । अल्पसावधानामपि परिमाणकरणमिति ॥ अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामनपानादीनां द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमोपेतं परयात्मानुग्रहबुद्ध्या संयतेभ्यो दानमिति ॥ __ अर्थ—दिखत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिकवत, पौषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगव्रत, और अतिथिसंविभागव्रत, ये सात उत्तरव्रत हैं । उपर्युक्त अगारी-श्रावक इन सात व्रतोंसे भी संपन्न-युक्त हुआ करता है। इनके लक्षण क्रमसे इस प्रकार हैं ।-तिर्यक्-तिरछी-पूर्वादि आठों दिशाओंमें तथा ऊर्ध्व और अधो दिशामें अपनी शक्तिके अनुसार गमनादि करनेका परिणामरूप नियम कर लेना, और उस मर्यादित क्षेत्रप्रमाण-दिङ्मर्यादासे बाहर जीवमात्रके विष. यमें सार्थक अथवा निरर्थक-अर्थ-प्रयोजनके अनुसार यद्वा निःप्रयोजन समस्त सावद्य योगोंको छोड़ना यह दिग्वत है । अपवरक-कोठा या कमरा आदि एवं गृह ग्रामकी सीमा आदिके विषयमें शक्त्यनुसार गमनागमनके लिये परिणामका नियम करलेना, इसको देशव्रत कहते हैं। दिग्वतके समान इसमें भी मर्यादित क्षेत्रके बाहर प्राणिमात्रके विषयमें अर्थतः अथवा उसके विना सम्पूर्ण सावद्ययोगका परिहार हुआ करता है । इस श्रावक व्रतके धारण करनेवालेके जो उपभोग , परिभोग होते हैं, उनको अर्थ कहते हैं। और उनके सिवाय जितने विषय हैं, वे सब अनर्थ समझने चाहिये । इस अनर्थके लिये जो दण्ड प्रवृत्ति हो उसको अनर्थदण्ड कहते हैं। तथा अनर्थदण्डसे विरति-उपरति होनेको अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं। कालकी मर्यादा करके उतने समयके लिये समस्त सावद्य योगोंको छोड़ देनेका नाम सामायिक है। निन्द्य दोषयुक्त या पापवर्धक कार्यको अथवा आरम्भ परिग्रहरूप या भोगोपभोगरूप क्रियाओंको अवद्यकर्म कहते हैं, और इस तरहके कार्यके लिये जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति होती है, उसको सावद्ययोग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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