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सूत्र १-२-३।]
समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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भी दोष प्रकट करनेका विचार करना, इत्यादि अशुभ मानसकर्म-अशुभ मनोयोग हैं। इनसे विपरीत जो क्रिया होती है, वह सब शुभ कही जाती है। जैसे कि पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करना, उनकी स्तुति करना और उनके निरूपित तत्त्वोंका चिन्तवन करना आदि ।
यहाँपर आस्रवतत्त्वका व्याख्यान करनेके लिये इस प्रकरणका प्रारम्भ किया है, परंतु उसको न बताकर योगका लक्षण कहा है, अतएव आस्रव किसको समझना यह बतानेके लिये आगेका सूत्र करते हैं:
सूत्र-स आस्रवः ॥२॥ भाष्यम्-स एष त्रिविधोऽपि आस्रवसंज्ञो भवति। शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवणादास्रवः सरःसलिलावाहिनिर्वाहिस्रोतोवत् ॥
- अर्थ-पूर्वसूत्रमें जिसका वर्णन किया गया है, वह तीनों ही प्रकारका योग आस्त्रव नामसे कहा जाता है। क्योंकि शुभ और अशुभ कर्मोंके आनेसे आस्रव हुआ करता है । जैसे कि तालाबका जल जिनके द्वारा बाहरको निकलकर जाता है, या बाहरसे उसमें आता है उस छिद्र या नालीके समान ही आस्रवको समझना चाहिये।
- भावार्थ-कर्मों के आनेके द्वारको अथवा बंधके कारणको आस्रव कहते हैं । उपर्युक्त तीन प्रकारके योगों द्वारा ही कर्म आते और बंधको प्राप्त हुआ करते हैं, अतएव उन्हींको आस्त्रव कहते हैं । यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि पहले सूत्रके द्वारा तो योगका स्वरूप बताया और फिर इस दूसरे सूत्रके द्वारा उसी योगको आस्रव कहा, ऐसा करनेका क्या कारण है ? ऐसा न कर यदि दोनोंकी जगह एक ही सूत्र किया जाता, तो क्या हानि थी ? परन्तु यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सभी योग आस्रव नहीं कहे जाते । कायादि वर्गणाके आलम्बनसे जो योग होता है, उसीको आस्रव कहते हैं । अन्यथा केवली भगवान्के समुद्घातको भी आस्रव कहना पडेगा। इसके सिवाय सैद्धान्तिक उपदेशके अपायका भी प्रसङ्ग आसकता है, तथा अनेक जीवोंको उसके अर्थ समझनेमें सन्देह भी हो सकता है। इत्यादि कारणोंको लक्ष्यमें लेकर अर्थकी स्पष्ट प्रतिपत्ति करानेके लिये दो सत्र करना ही उचित है ।
__ऊपर योगके दो भेद बताये हैं-शुभ और अशुभ । इसमें से पहले शुभयोगका स्वरूप बताते है।
सूत्र-शुभः पुण्यस्य ॥३॥ भाष्यम्-शुभो योगः पुण्यस्यास्रवो भवति ॥ अर्थ-शुभयोग पुण्यका अस्त्रव है।
भावार्थ-ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों में दो भेद हैं--पुण्य और पाप । जिन कर्मोंका फल जीवको अभीष्ट हो, उनको पुण्य और जिनका फल अनिष्ट हो, उनको पाप कहते हैं । अत
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