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सूत्र ३८-३९-४०।] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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भाष्यम् – अत्राह - उक्तं भवता गुणपर्यायवड् द्रव्यमिति । तत्र के गुणा इति ? अत्रोच्यतेःअर्थ - प्रश्न- आपने द्रव्यका लक्षण बताते हुए कहा है, कि जिसमें गुण और पर्याय पाये जाँय, उसको द्रव्य कहते हैं । परन्तु यह नहीं मालूम हुआ कि गुण किसको कहते हैं । अतएव कहिये कि वे गुण कौनसे हैं ?
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भावार्थ - - द्रव्यके लक्षण में आये हुए गुणपर्याय शब्दों का स्वरूप बतानेकी आवश्यकता है । पर्याय और गुण एक ही हैं, यह बात पहले बता चुके हैं, अतएव गुण शब्द के ग्रहणसे पर्यायका ग्रहण भी हो ही जाता है । इसीलिये पर्यायके विषय में प्रश्न न करके गुणके विषयमें यहाँपर प्रश्न किया है । अथवा भेद विवक्षामें गुण और पर्याय भिन्न भी हैं । इस दृष्टिसे उसका भी प्रश्न होना चाहिये । परन्तु उसका स्वरूप भी आगे के सूत्रद्वारा बतावेंगे । क्रमानुसार पहले गुणका स्वरूप बताना चाहिये । इस बातको लक्ष्यमें लेकर ही प्रश्न उपस्थित किया गया है। अब ग्रन्थकार उसका उत्तर देने के लिये गुणका लक्षण बतानेवाला सूत्र करते हैं:सूत्र -- द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥
भाष्यम् - द्रव्यमेषामाश्रय इति द्रव्याश्रयाः, नैषां 'गुणाः सन्तीति निर्गुणाः ॥
अर्थ — जिनका आश्रय द्रव्य है- जो द्रव्यमें रहते हैं, और जिनमें गुण नहीं रहते, स्वयं निर्गुण हैं, उनको गुण कहते हैं ।
भावार्थ — यहाँपर आश्रय शब्द आधारको बतानेवाला नहीं है, किंतु परिणामीको बताता है | स्थित्यंशरूप द्रव्य परिणामी है, क्योंकि वह अनेक परिणाम विशेषका कारण है । द्रव्य परिणमन करता है, इसलिये गुण और पर्याय परिणाम हैं, तथा द्रव्य परिणामी है । गुण स्वयं निर्गुण हैं। क्योंकि उनमें और गुण नहीं रहते । ज्ञानादिक या रूपादिक में अन्य कोई भी गुण नहीं रहता ।
भाष्यम् अत्राह-उक्तं भवता बन्धे समाधिको पारिणामिकाविति । तत्र कः परिणाम इति । अत्रोच्यतेः
अर्थ - यह बात आप कह चुके हैं, कि बंध होनेपर समगुण अपने समगुणका परिणमन करा देता है, और अधिक गुणवाला हीन गुणवालेका परिणमन करा देता है । इसमें परिणाम शब्दसे क्या समझना चाहिये ? वे पुनल अपनेसे भिन्न परिणाम नामकी किसी वस्तुको उत्पन्न करते हैं ? अथवा स्वयं ही अपने स्वरूपको न छोड़ते हुए किसी विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं ? इसका उत्तर देनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं: --
१- पहले अध्याय के पाँचवें सूत्र द्वारा नामादि निक्षेपोंका वर्णन करते हुए भाष्यकारने कहा था कि "भावतो द्रव्याणि धर्मादीनि सगुणपर्यायाणि प्राप्तिलक्षणानि वक्ष्यन्ते ।" इसमें भी प्राप्ति शब्दका अर्थ परिणाम ही है । अतएव इसका स्वरूप भी प्रतिज्ञानुसार बताना आवश्यक है । सो यह हेतु भी आगे के सूत्रद्वारा सिद्ध होता है ।
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