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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ पञ्चमोऽध्यायः
विषयमें समझना चाहिये । एकके साथ ही दूसरा भी जरूर होता है । क्योंकि ये दोनों परस्परमें हेतु और फल हैं । पूर्वपर्यायके व्ययके विना उत्तरपर्यायका उत्पाद नहीं मिल सकता । अतएव दोनोंको एकक्षणवर्ती ही मानना चाहिये । अन्यथा हेतुसे फल या सत्से उसकी अवस्थाएं भिन्न है ? अथवा सर्वथा अभिन्न हैं ! इन दोनों ही पक्षोंमें अनेक दोषोंकी सम्भावना है । इसलिये मनुष्यादिसे देवत्वादिका होना बन नहीं सकता, और इसलिये आगममें देवत्वादिके यमनियमादिरूप मार्गका जो वर्णन किया है, सो व्यर्थ ही ठहरता है । इसी तरहसे “ सम्यग्दृष्टिःसम्यक्संकल्पः सम्यग्वाग् सम्यङ्मार्गः सम्यगार्जवः सम्यग्व्ययामः सम्यक्स्मृतिः सम्यक्समाधिः" इस वचनको भी वैयर्थ्य ही आता है। क्योंकि सत्से अवस्थाओंका सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेद ही माननेपर कार्य कारणका भेद ही जब नहीं बनता, तो किसीभी एकान्त पक्षके लेनेपर इन कारणोंका उल्लेख करना निरर्थक ही ठहरता है। इसलिये मानना चाहिये, कि सत् उत्पाद व्यय धौव्यसे प्रतिक्षणयुक्त रहा करता है। घट पर्यायके व्ययसे युक्त मृत्तिकाका ही कपालरूपमें उत्पाद हुआ करता है, अतएव घटके व्यय कपालके उत्पाद और मृत्तिकाके ध्रौव्यका एक ही क्षण है, और इसी लिये सत्की युगपत् उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मकता सिद्ध है। एकान्तसे ध्रौव्य स्वभावके माननेपर सत्का जैसा भी एक स्वभाव कहा जायगा, उसी स्वभावमें वह सदा अवस्थित रहेगा, उसकी अवस्थाओंमें भेदका होना नहीं बन सकता, और दसरे एकान्त पक्षके विषयमें ऊपर लिखे अनुसार समझ लेना चाहिये । यहाँपर मनुष्य देव आदिकी स्थिति द्रव्यकी अपेक्षा लेकर जो सत्के अनुसार स्वभावको दिखाया है, सो सब व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। निश्चयनयसे देखा जाय, तो वस्तुमें प्रतिक्षण उत्पादादिक हुआ करते हैं, और वैसा होनेपर ही अवस्थासे अवस्थान्तरका होना सिद्ध हो सकता है। अन्यथा–प्रतिक्षण उत्पादादिके माने विना न तो वस्तुका वस्तुत्व ही सिद्ध हो सकता है, और न लोक-व्यवहारही घटित हो सकता है। जैसा कि कहा भा है कि
सम्पूर्ण व्यक्ति-पदार्थ मात्रमें क्षण क्षणमें अन्यत्व हुआ करता है, और फिर भी कोई विशेषता नहीं होती, यह बात निश्चित है । क्योंकि चिति और अपचिति-वृद्धि और हास अथवा उत्पाद और व्यय दोनोंका सदा सद्भाव रहनेसे उनमें आकृति-आकार विशेषरूप व्यक्ति और जाति-सामान्य आकार दोनों धाका सदा अवस्थान सिद्ध है ॥ १॥ इस वस्तु-स्वभावके अनुसार ही नरकादिक गतियोंका भेद और संसार मोक्षका भी भेद सिद्ध है । इनके कारण मुख्यतया क्रमसे हिंसादिक और सम्यक्त्वादिक है। अर्थात् नरकादि गतियोंके मुख्य कारण हिंसा आदिक हैं, और मोक्षके मुख्य कारण सम्यक्त्व आदि हैं ॥२॥ वस्तुको उत्पादादि स्वभावसे युक्त माननेपर ही ये सब भेद आदिक अथवा कारणोंका वर्णन निश्चितरूपसे बन सकता है, अन्यथा नहीं। उत्पादादिसे रहित वस्तुके माननेपर वस्तुका ही अभाव सिद्ध होता है । अत एव ये सब भेद और कारण
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