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सूत्र ३२ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । चार प्रकारके जो क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, जीवके उनका उपयोग क्रमसे हुआ करता है, युगपत् नहीं हुआ करता । अर्थात् ये चारों ही ज्ञान क्रमवर्ती हैं न कि सहवर्ती । परन्तु केवलज्ञान ऐसा नहीं है । जिन केवली भगवान् को परिपूर्ण ज्ञान और परिपूर्ण दर्शन प्राप्त हो गया है, उनका वह केवलज्ञान और केवलदर्शन समस्त पदार्थोको युगपत विषय किया करता है, क्योंकि वह असहाय है, और इसीलिये इन दोनोंका उपयोग प्रतिसमय युगपत् ही हुआ करता है । तथा एक बात यह भी है, कि पांच प्रकारके जो ज्ञान हैं उनमेंसे आदिके चार ज्ञान क्षायोपशमिक-ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले हैं, परन्तु केवलज्ञान उसके सर्वथा क्षयसे ही प्रकट होता है । अतएव केवली भगवान्के केवलज्ञान ही रहा करता है, बाकीके चार ज्ञान उनके नहीं हुआ करते ।
भावार्थ—क्षायिक और क्षायोपशमिकमें परस्पर विरोध है, अतएव क्षायिक-केवलज्ञानके साथ चारों क्षायोपशमिक ज्ञानोंका सहभाव नहीं रह सकता, इसलिये केवलीके केवलज्ञानके सिवाय चारोंका अभाव ही समझना चाहिये ।
यहाँतक प्रमाणरूप पाँचो ज्ञानोंका वर्णन किया, अब प्रमाणाभास रूप ज्ञानोंका निरूपण करनेकी इच्छासे सूत्र कहते हैं
सूत्र--मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ भाष्यम्-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमिति विपर्ययश्च भवत्यज्ञानं चेत्यर्थः । ज्ञानविपर्ययोऽज्ञानमिति । अत्राह । तदेव ज्ञानं तदेवाज्ञानमिति । ननु च्छायातपवच्छीतोष्णवच्च तदत्यन्तविरुद्धमिति । अत्रोच्यते।-मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतग्राहकत्वमेतेषाम् । तस्मादशानानि भवन्ति । तद्यथा ।-मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । अवधिविपरीतो विभङ्ग इत्युच्यते॥
अर्थ-मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये विपर्यय भी हुआ करते हैं, अर्थात् ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप भी कहे जाते हैं। क्योंकि ज्ञानसे जो विपरीत हैं, उन्हींको अज्ञान कहते हैं। शंका-उसीको ज्ञान कहना और उसीको अज्ञान कहना यह कैसे बन सकता है ?
१--केवलज्ञान और केवलदर्शनके विषयमें दो सिद्धान्त हैं-दिगम्बर आम्नायमें दोनों उपयोग एक समयमें ही हुआ करते हैं, ऐसा माना है। क्योंकि दोनों उपयोगोंको आवृत्त करनेवाले दो कर्म हैं-ज्ञानावरण और दर्शनावरण । इन दोनोंका केवलीके सर्वथा क्षय हो जानेसे फिर कोई भी क्रमवर्तिताका कारण शेष नहीं रहता। इसी लिये ऐसा लिखा भी है कि “ देसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं ण दोणि उबओगा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।। ४४ ॥" -द्रव्यसंग्रह-श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती । परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ऐसा नहीं माना है । श्रीसिद्धसेनगणिकृत टीकामें लिखा है कि "नचातीवाभिनिवेशोऽस्माकं युगपदुपयोगो मा भूदिति । वचनं न पश्यामस्तादृशम् , क्रमोपयोगार्थप्रतिपादने तु भूरिवचनमुपलभामहे ।" अर्थात् इस विषयमें हमारा ऐसा कोई अत्यधिक आग्रह नहीं है, कि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं ही हों। परन्तु इस विषयके विधायक वचन नहीं दीखते। उपयोगकी क्रमवर्तिता रूप अर्थके प्रतिपादक वचन बहुतसे देखनेको मिलते हैं । यथा-" नाणम्मि दंसणम्मिय एत्तो एगयरम्मि उवउत्ता।” (प्रज्ञापनायाम् )। तथा “ सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो णात्थ उवओगा।” (वि. ३०९६)
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