________________
सूत्र ३०-३१-३२-३३-३४ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
अब दोनों असुरेन्द्रोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बतानेके लिये सूत्र करते हैं
सूत्र-असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ॥ ३२ ॥ भाष्यम्-असुरेन्द्रयोस्तुदक्षिणार्धाधिपत्युत्तरार्धाधिपत्योः सागरोपममधिकं च यथा सख्यम् परा स्थितिर्भवति ॥
____ अर्थ-असुरेंद्र दो हैं-चमर और बलि । दक्षिण अर्धके अधिपति चमर और उत्तर अर्धके अधिपति बलि हैं । इनकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे एक सागर और एक सागरसे कुछ अधिक है।
भावार्थ-सागरका प्रमाण पहले बता चुके हैं, तदनुसार चमरेन्द्रोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरकी है, और उत्तराधिपति बलिराजकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरसे कुछ अधिक है । यहाँपर भावनेन्द्रोंकी उत्कृष्ट स्थिति सामान्यसे बताई है। विशेष कथन " व्यारव्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इस वाक्यके अनुसार आगमसे समझ लेना चाहिये । यथा-असुरकुमारियोंकी उत्कृष्ट स्थिति साढ़े चार पत्यकी है । बाकी नागकुमारी प्रभृति सम्पूर्ण भवनवासिनियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम एक पल्यकी है । इत्यादि ।
इस प्रकार भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन किया । अब जघन्य स्थितिका वर्णन करना चाहिये और उसके बाद क्रमानुसार व्यन्तर और ज्योतिष्कोंकी स्थितिका वर्णन करना चाहिये । परन्तु ऐसा करनेमें गौरव होता है, अतएव ग्रन्थलाघवके लिये इस विषयको आगेके लिये छोड़कर पहले वैमानिक निकायकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये प्रस्तावरूप सूत्रको कहते हैं:
सूत्र--सौधर्मादिषु यथाक्रमम् ॥ ३३ ॥ भाष्यम्-सौधर्ममादिं कृत्वा यथाक्रममित ऊर्ध्व परा स्थितिर्वक्ष्यते ।
अर्थ-अब यहाँसे आगे वैमानिक देवोंकी-सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्ध विमानतकके सभी देवोंकी आयुकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे बतायेंगे । अर्थात-इस सूत्रके द्वारा केवल इस बातकी प्रस्तावना की है, कि अब वैमानिकोंकी उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन किया जायगा। ___अब प्रतिज्ञानुसार वैमानिकोंकी उत्कृष्ट स्थिति बतानेके लिये सबसे पहले सौधर्म और ऐशान आदि कल्पवासियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बतानेके लिये सूत्र करते हैं:--
सूत्र-सागरोपमे ॥ ३४॥ भाष्यम्-सौधर्मे कल्पे देवानां परा स्थितिढे सागरोपमे इति ।
अर्थ-सबसे पहले सौधर्म कल्पमें देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो सागर प्रमाण है।
भावार्थ-यह उत्कृष्ट स्थिति इन्द्र अथवा सामानिक देवोंकी अपेक्षासे समझनी चाहिये। शेष सामान्य दूसरे देवोंकी स्थिति जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्टके मध्यमें अनेक भेदरूप है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org