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सुत्र २८-२९।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नारक मानुष और देवोंका अभीतक वर्णन किया गया है, परन्तु तैर्यग्योन भेदका नामोल्लेख करनेके सिवाय और कुछ भी वर्णन नहीं किया, अतएव कहिये, कि तैर्यग्योन किनको समझना ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही आगेका सूत्र करते हैं
सूत्र--औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः॥ २८ ॥
भाष्यम्-औपपातिकेभ्यश्च नारकदेवेम्यो मनुष्येभ्यश्च यथोक्तेभ्यः शेषा एकेन्द्रियादयस्तिर्यग्योनयो भवन्ति ॥
अर्थ-उपपात जन्मवाले नारक और देव, तथा गर्भन और सम्मूर्छन दोनों प्रकारके मनुष्य इनके सिवाय जितने भी संसारी जीव बचे-एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त वे सब तिर्यग्योनि कहे जाते हैं।
भावार्थ-तिर्यग्योनि किन किन जीवोंको समझना सो यहाँपर बताया है। देवादिकोंके समान तिर्यग्योनि जीवोंके आधार-निवासस्थानका भी वर्णन करना चाहिये । परन्तु उसका वर्णन किया नहीं है, क्योंकि वे सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होकर रह रहे हैं। यद्यपि प्रधानतया तिर्यग्लोक-मध्यलोकमें ही इनका आवास है, फिर भी सामान्यसे स्थावर कायका सद्भाव सर्वत्र ऊर्ध्व और अधोलोकमें भी पाया जाता है । तिर्यग्लोकमें मुख्य आवास रहनेके कारण ही इनकी तिर्यग्योनि संज्ञा है।
भाष्यम्-अत्राह-तिर्यग्योनिमनुष्याणां स्थितिरुक्ता । अथ देवानां का स्थितिरिति ? अत्रोच्यते
अर्थ-प्रश्न-तिर्यम्योनि और मनुष्योंकी जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुकी स्थितिका प्रमाण तीसरे अध्यायके अन्तमें बता चुके हैं। अतएव उसके दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु देवोंका प्रकरण चल रहा है, और उनकी आयुकी स्थिति जघन्य या उत्कृष्ट कैसी भी अभीतक बताई भी नहीं है । अतएव कहिये कि देवोंकी स्थितिका क्या हिसाब है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लियेही आगेका सूत्र करते हैं
सूत्र-स्थितिः॥ २९ ॥ . भाष्यम्-स्थितिरित्यत ऊर्ध्वं वक्ष्यते ॥
अर्थ-यह अधिकार-सूत्र है । अतएव इसका अभिप्राय इतना ही है, कि यहाँसे आगे स्थितिका वर्णन करेंगे । अर्थात् “वैमानिकानां " सूत्रसे लेकर अबतक वैमानिक देवोंका अधिकार चला आ रहा था। परन्तु वहींपर यह बात कही जा चुकी है, कि स्थितिके
-यहाँपर इस सूत्रके करनेसे लाघव होता है, अतएव देवोंके प्रकरणमें भी तिर्यग्योनिका स्वरूप बता दिया है ।
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