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सूत्र २-३।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२४७ नहीं समझना चाहिये । किन्तु ये स्वतन्त्र द्रव्य हैं, जैसा कि आगेके सूत्रमें बताया जायगा । पुण्य पाप तो कर्मके भेद हैं, जिनका कि पुद्गल द्रव्यके भेदोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है।
धर्मादिक चारोंकी द्रव्यता सूत्र द्वारा अभीतक अनुक्त है, अतएव इनके विषयमें सन्देह ही रह सकता है, कि ये द्रव्य हैं, अथवा पर्याय हैं। अतएव इस सन्देहकी निवृत्ति के लिये सूत्र करते हैं
सूत्र--द्रव्याणि जीवाश्च ॥ २॥ भाष्यम्-एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पञ्च द्रव्याणि च भवन्तीति। उक्तं हि “मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु, सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य " इति ॥
अर्थ-उपर्युक्त सूत्रमें बताये हुए धर्मादिक चार और अनन्तर चार अध्यायोंमें जिनका वर्णन किया गया है, वे जीव द्रव्य हैं । अर्थात् पाँचोंकी ही द्रव्य संज्ञा है । जैसा कि पहले अध्यायके सूत्र “ मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ” और “ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य " में द्रव्य शब्दका प्रयोग किया गया है ।
भावार्थ-द्रव्यका लक्षण आगे चलकर इसी अध्यायके सूत्र ३१ द्वारा बतावेंगे। वैशेषिकादि मतवालोंका कहना है, कि द्रव्य शब्दसे द्रव्यत्व जातिका ग्रहण हुआ करता है। जाति यह सामान्य नामका एक पदार्थ है, अतएव द्रव्यत्व भी एक सामान्य पदार्थ ही है ।
और इस द्रव्यत्व सामान्यके सम्बन्धसे ही द्रव्य कहा जाता है। परन्तु यह अभिमत ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्य नामका पदार्थ पदार्थसे या द्रव्यसे भिन्न है, या अभिन्न है ? इनमेंसे किसी भी एक पक्षके लेनेपर सामान्य नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होता, जैसा कि आगे चलकर स्पष्ट करेंगे।
इस सूत्रमें जो पाँच द्रव्य गिनाये हैं, उनके विषयमें तीन प्रश्न उपस्थित होते हैं।ये कभी भी अपने स्वभावसे च्युत होते हैं या नहीं ? पाँच यह संख्या कभी विघटित होती है या नहीं ? और ये पाँचो ही द्रव्य मूर्त हैं अथवा अमूर्त ? इन तीनों ही प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये सूत्र करते हैं।
सूत्र--नित्यावस्थितान्यरूपाणि च ॥३॥ भाष्यम्-एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति । तद्भावाव्ययं नित्यमिति । वक्ष्यते अवस्थितानि च । न हि कदाचित्पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति । अरूपाणि च, नैषां रूपमस्तीति । रूपं मूर्तिभृत्याश्रयाश्च स्पर्शादय इति ।। ___अर्थ-ये पूर्वोक्त सूत्र द्वारा बताये हुए द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं, और अरूप हैं। नित्य शब्दका अभिप्राय आगे चलकर “ तद्भावाव्ययम् नित्यम् " इस सूत्रके द्वारा बतायेंगे, अर्थात् वस्तुका जो भाव-स्वभाव है, उसके व्यय न होनेको नित्य कहते हैं । अतएव धर्मादिक
१-दव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावाः सप्त पदार्थाः ।
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