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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[द्वितीयोऽध्यायः
भाष्यम्--गतिश्चतुर्भेदा नारकतैर्यग्योनमनुष्यदेवा इति । कषायश्चतुर्भेदः क्रोधी मानी मायी लोभीति । लिङ्गं त्रिभेदं स्त्रीपुमान्नपुंसकमिति । मिथ्यादर्शनमेकभेदं मिथ्यादृष्टिरिति । अज्ञानमेकभेदमज्ञानीति । असंयतत्त्वमेकभेदमसंयतोऽविरत इति । आसिद्धत्वमेकभेदमसिद्ध इति । एकभेदमेकविधमिति। लेश्याःषड्भेदाः कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या । इत्येते एकविंशतिरौदयिकभावा भवन्ति।
अर्थ-गतिके चार भेद हैं-नरकगति तिर्यंचगति मनुष्यगति और देवगति । कषाय चार प्रकारका है-क्रोध मान माया और लोभ । लिंग तीन तरहका है-स्त्रीलिंग पुल्लिंग और नपुंसकलिंग । मिथ्यादर्शन एक भेदरूप ही है। इसी तरह अज्ञान असंयत और असिद्धत्व ये भी एक एक भेदरूप ही हैं। एक भेद कहनेका मतलब यह है, कि ये एक एक प्रकारके ही हैं-इनके अनेक भेद नहीं हैं। लेश्या छह प्रकारकी है-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेनोलेश्या पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । इस प्रकार ये सब मिलकर २१ औदयिकभाव होते हैं ।
भावार्थ-जो भाव कर्मके उदयसे होते हैं, उनको औदयिक कहते हैं । नरकगति नामकर्मके उदयसे नारकभाव हुआ करते हैं, इसलिये नरकगति औदयिकी है । इसी तरह तिर्यंचगति आदि सभी भावोंके विषयमें समझना चाहिये। ये सब भाव अपने अपने योग्य कर्मके उदयसे ही हुआ करते हैं, इसलिये सब औदयिक हैं । लेश्या नामका कोई भी कर्म नहीं है, अतएव लेश्यारूप भाव पर्याप्ति नामकर्मके उदयसे अथवा पुद्गलविपाकी शरीरनाम कर्म और कषाय इन दोके उदयसे हुआ करते हैं। क्योंकि कषायके उदयसे अनुरंजित मन वचन और कायकी प्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं । असिद्धत्वभाव आठ कर्मोके उदयसे अथवा चार अघातीकर्मोके उदयसे हुआ करता है।
यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि जब कर्मके भेद १२२ हैं, अथवा १४८ हैं तो औदयिकभाव २१ ही कैसे कहे, जितने कर्मोंके भेद हैं, उतने ही औदयिक भावोंके भी भेद क्यों नहीं कहे । परन्तु यह शंका ठीक नहीं हैं, क्योंकि इन २१ भेदोंमें सभी औदयिकभावोंका अन्तर्भाव हो जाता है । जैसे कि आयु गोत्र और जाति शरीर आङ्गोपाङ्ग आदि नाम कर्मप्रभृतिका एक गतिरूप औदयिकभावमें ही समावेश हो जाता है, तथा कषायमें हास्यादिका निवेश हो जाता है, उसी प्रकार सबका समझना चाहिये ।
लेश्या दो प्रकारकी बताई हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । शरीरके वर्णको द्रव्यलेश्या और अन्तरङ्ग परिणाम विशेषोंको भावलेश्या कहते हैं । पुनरपि ये लेश्या दो प्रकारकी
१-"जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ।४८९॥ गो० जी०" कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या ।
२-जीव जिस लेश्याके योग्य कर्म द्रव्यका ग्रहण करता है उसके निमित्तसे उसी लेश्यारूप उसके परिणाम हो जाते हैं-यथा “ जल्लेस्साई दवाइं आदिअंति तल्लेस्से परिणामे भवति " ( प्रज्ञा० लेश्याफ्दे० )।
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