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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः भाष्यम्-अत्राह-केपुनलौकान्तिकाः कतिविधावेति । अत्रोच्यते
अर्थ-प्रश्न-वैमानिक देवोंका वर्णन करते हुए आपने लौकन्तिक देवोंका नामोल्लेख जो किया है वे कौन हैं ? और कितने प्रकारके हैं ! इसका उत्तर देनेके लिये ही आगेके सत्रका उपस्थापन करते हैं
सूत्र-ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥ _ भाष्यम्-ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः। ब्रह्मलोकं परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति । तद्यथा
... अर्थ-ब्रह्मलोक है, आलय-स्थान जिनका उनको कहते हैं ब्रह्मलोकालय । लोकान्तिक देव ब्रह्मलोकालय ही होते हैं । अर्थात् लोकान्तिक देव ब्रह्मलोकमें ही निवास करनेवाले हैं, वे अन्य कल्पोंमें निवास नहीं करते, और न कल्पोंसे परे ग्रैवेयकादिकमें ही निवास करते हैं । अर्थात् सूत्र करनेकी सामर्थ्य से ही एवकारका अर्थ निकल आता है। उस सामर्थ्यलम्य एवकारको ही भाष्यकारने यहाँपर स्फुट कर दिया है। इसका फल अवधारण अर्थको दिखाना ही है । अन्यथा कोई यह समझ सकता था, कि ब्रह्मलोक-पाँचवें स्वर्गमें लोकान्तिक देव ही रहते हैं। सो यह बात नहीं है, ऐसा दिखाना भी- इसका अभिप्राय है । अर्थात् ब्रह्मलोकमें अनेक देव रहते हैं, उनमें ही लोकान्तिक देव रहते हैं। परन्तु लोकान्तिक देव ब्रह्मलोकमें ही रहते हैं, अन्यत्र नहीं रहते । लोकांतिकोंके निवास स्थानको इस तरह खास तौरसे बतानेका कारण उनकी विशिष्टताको प्रकट करना है । क्योंकि अन्य देवोंकी अपेक्षा लोकान्तिक देव विशिष्ट हैं। उनमें विशिष्टता दो कारणसे है। एक तो निवास स्थान की अपेक्षा दूसरी अनुभावकी अपेक्षा । इनका निवास-स्थान ब्रह्मलोकमें जहाँपर दूसरे सामान्य देव रहते हैं, वहाँपर नहीं है, किन्तु ब्रह्मलोकके अन्तमें चारों तरफ आठों दिशाओंमें-चार दिशा और चार विदिशाओंमें है । इसीलिये इनको लोकान्तिक कहते हैं। क्योंकि जिस प्रकार साधुओंके निवास स्थान शहरके बाहर बने हुए होते हैं, उसी प्रकार इनके भी ब्रह्मलोकके अन्तमें-बाहर आठ दिशाओंमें आठ निवास स्थान बने हुए हैं। उन्हीमें ये उत्पन्न होते हैं, और उन्हींमें ये रहते हैं । अतएव निवास स्थानकी अपेक्षा विशेषता है । अथवा लोक शब्दका अर्थ जन्म मरण जरारूप संसार भी है, उसका
१-लोको ब्रह्मलोकस्तस्याम्तं बाह्यप्रदेशातत्र वसन्ति तत्रभवा इति वा लोकान्तिकाः। २-मध्य लोकमें असंड्यात द्वीप समुद्रों से एक अरुणवर नामका भी समुद्र है। उसमेंसे अत्यंत सघन अन्धकारका पटल निकलता है । वह ऊपर ब्रह्मलोकतक चला गया है। वह इतना निविड है, कि एक देवभी उसमेंसे निकलनेमें घबड़ा जाता है। वह अंधकार ऊपर जाकर ब्रह्मलोकके नीचे अरिष्ट विमानके प्रस्तारमें अक्षपाटकके आकार आठ श्रेणियों में विभक्त हो गया है। इन्हीं श्रेणियोंमेंसे दो दो श्रेणियोंके मध्यमें सारस्वत आदि एक एक लोकान्तिक देवका निवास-स्थान है। आठ दिशाओंमें रहमेवालोंके आठ भेद यहाँ बताये हैं, परन्तु शास्त्रोंमें नौ भेद है। आोंके मध्यमे एक अरिष्ट विमाम और है ।
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