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रायचन्द्र नशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः वैक्रियसे आहारक सूक्ष्म होता है, आहारकसे भी तैनस सूक्ष्म होता है, और तैजससे भी कार्मणशरीर सूक्ष्म होता है।
भावार्थ-यहाँपर सूक्ष्म शब्दसे आपेक्षिकी सूक्ष्मता ग्रहण करनी चाहिये, न कि सूक्ष्मनामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाली सूक्ष्मता । जो चर्म चक्षुओंके द्वारा देखी न जा सके, अथवा जो दूसरेसे न रुके और न दूसरेको रोके ऐसी चक्षुरिन्द्रियागोचर पुद्गलद्रव्यकी पर्यायको सक्ष्म कहते हैं। मनुष्य और तिर्यचोंका शरीर स्वभावसे ही देखनेमें आता है, अतएव वह सबसे अधिक स्थूल है । किंतु वैक्रिय शरीर दिखानेपर विक्रिया द्वारा देखनेमें आ सकता है, स्वभावसे ही देखनेमें नहीं आता, अतएव वह औदारिककी अपेक्षा सूक्ष्म है, किंतु आहारककी अपेक्षा स्थूल है । इसी लिये इसकी सूक्ष्मता आपेक्षिकी सूक्ष्मता कही जाती है । इसी तरह वैक्रियसे आहारक, आहारकसे तैजस और तैजससे कार्मणशरीर सूक्ष्म है। कार्मणशरीरमें अन्त्य-सबसे अधिक सूक्ष्मता है । क्योंकि जिन पुद्गलवर्गणाओं के द्वारा इन शरीरोंकी रचना होती है, उनका प्रचय उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्म और घनरूप है, किंतु कार्मणशरीरका प्रचय सबसे अधिक सूक्ष्म घनरूप है ।
इन शरीरोंमें जब उत्तरोत्तर सूक्ष्मता है, तो इनके प्रदेशोंकी संख्या भी उत्तरोत्तर कम कम होगी, ऐसी आशङ्का हो सकती है । अतएव इस शंकाकी निवृत्तिके लिये सूत्र कहते हैं।
सूत्र-प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३९ ॥ भाष्यम्-तेषां शरीराणां परं परमेव प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं भवति प्राक तैजसात् । औदारिकशरीरप्रदेशेभ्यो वैक्रियशरीरप्रदेशा असख्येयगुणाः वैक्रियशरीरप्रदेशेभ्य आहारकशरीरप्रदेशा असङ्ख्य यगुणा इति।।
___अर्थ-यद्यपि उक्त शरीरोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता है, परन्तु उत्तरोत्तर ही इन शरीरोंके प्रदेश असंख्यातगुणे असंख्यागुणे हैं। किंतु यह असंख्यातका गुणाकार तैजसशरीरसे पहले पहले ही समझना चाहिये । अर्थात् औदारिकशरीरके नितने प्रदेश हैं, उनसे असंख्यातगुणे वैक्रियशरीरके प्रदेश होते हैं, और नितने वैक्रियशरीरके प्रदेश हैं, उनसे असंख्यातगुणे आहारकशरीरके प्रदेश होते हैं।
भावार्थ-यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रमाण एक हजार योजन है, और वैक्रियशरीरका प्रमाण एक लक्ष योजन । इसलिये औदारिकसे वैक्रियके प्रदेश असंख्यातगुणे होंगे। परन्तु यह बात नहीं है, शरीरकी अवगाहनासे उसके
१-यहाँपर प्रदेशसे अभिप्राय परमाणुओंका नहीं है, स्कन्धोंका है, जो कि असंख्यात अनन्त परमाणुओंसे प्रचित होते हैं । किंतु दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार प्रदेशका लक्षण इस प्रकार है-जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवदृद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुद्राणदाणरिहं ॥ २५॥ ( द्रव्यसंग्रह ) अतएव प्रदेशसे परमाणुओंको ही लिया है। यथा-" प्रदेशाः परमाणवस्ततोऽसंख्येयगुणं", (-श्रीविद्यानन्दिस्वामी-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक । )
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