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सब ८-९।।
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
खण्ड द्वीप कालोदसमुद्रसे और कालोदसमुद्र आधे पुष्करवरद्वीपसे घिरा हुआ है । आधा पुष्करवरद्वीप मानुषोत्तरपर्वतसे और मानुषोत्तरसे परेका आधा पुष्करवर द्वीप पुष्करवरोद समुद्रसे घिरा हुआ है। इसी तरह स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त समझ लेना चाहिये । अर्थात् ये सभी द्वीप समुद्र परस्परमें एक दूसरेसे परिवेष्टित-घिरे हुए हैं।
वलयाकृति-उपर्युक्त सभी द्वीप और समुद्रोंका आकार तथा इनके साथ साथ मानुषोत्तर पर्वतकी भी आकृति कंकणके समान गोल समझनी चाहिये।
भावार्थ-यद्यपि पहले जम्बूद्वीपमें लवणसमुद्रादिके समान कंकणकीसी गोलाई प्रतीत नहीं होती। क्योंकि उसने किसीको घेर नहीं रक्खा है । तो भी जम्बूद्वीपके अंतकी परिधिको यदि देखा जाय, तो वैसी आकृति उसकी भी दीखती ही है। अथवा जम्बूद्वीपका आकार थालीके समान गोल समझ लेना चाहिये । यद्वा जम्बूद्वीपसे आगेके समुद्र और द्वीपोंका आकार तो कंकणके समान गोल और जम्बूद्वीपका आकार गोल मणिबन्ध-पहुँचेके समान समझ लेना चाहिये । अथवा इस सूत्रमें वलय-कंकणके समान जो आकृति कही है, सो लवणोदादिकी ही समझनी चाहिये, न कि जम्बूद्वीपकी । जम्बूद्वीपका आकार और उसके विष्कम्भविस्तारका प्रमाण बतानेके लिये आगे सूत्र कहते हैं:सूत्र-तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भोजम्बूद्वीपः ९
भाष्यम्-तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्ये तन्मध्ये । मेरुनाभिः।--मेरुरस्य नाभ्यामिति मेरुवास्य नाभिरिति मेरुनाभिः । मेरुरस्य मध्य इत्यर्थः । सवेद्वीपसमुद्राभ्यन्तरोवृत्तःकुलालचकाकृतिर्योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः । वृत्तग्रहणं नियमाथेम् । लवणादयो वलयवृत्ता जम्बूद्वीपस्तु प्रतरवृत्त इति। यथा गम्येत वलयाकृतिभिश्चतुरस्रव्यस्रयोरपि परिक्षेपो विद्यते तथा च माभूदिति ॥
अर्थःउन उपयुक्त असंख्यात द्वीप और समुद्रोंके मध्यमें पहला जम्बूद्वीप है। वह मेरुनामि है। अर्थात् मेरु इसका नाभिस्थानमें है, ऐसा कहिये, अथवा यों कहिये कि मेरु इसका नाभिस्थान है। तात्पर्य यही है, कि जम्बूद्वीपके ठीक मध्यमें मेरु हैं। यह सम्पूर्ण द्वीप और समुद्रोंके अभ्यन्तर ठहरा हुआ है और वृत्त-गोल है। इसका आकार कुम्भारके चक्रके समान है, और उसका विस्तार एक लाख योजनका है।
सूत्रमें वृत्त शब्द न दिया जाता, तो भी चल सकता था, फिर उसका जो ग्रहण किया है, सो विशेष नियमको बतानेके लिये है । वह यह कि लवणोदादिक असंख्यात द्वीप समुद्र तो
१-मेरु पाँच हैं—सुदर्शन विद्युन्माली विजय अचल और मन्दर । इनमेंसे पहला सुदर्शनमेरु जम्बूद्वीपके मध्यमें हैं और वह शेष चारोंसे बड़ा है । बाकी चारोंका प्रमाण बराबर है। चार से दोधातकी खण्ड और दो पुष्करवर द्वीपके दोनों तरफके भागोंमें अवस्थित हैं । २-योजन ४ कोशका होता है । परन्तु यहाँपर जो प्रमाण बताया है, वह प्रमाणामुलकी अपेक्षासे है । उत्सेधाडलसे प्रमाणाङ्गुल पाँचसौ गुणा होता है। अतएव प्रकृतमें एक योजन दो
हजार कोशके बराबर समझना चाहिये।
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