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सूत्र ३५ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
इति ।
भाष्यम् - अत्राह - उद्दिष्टा भवता नैगमादयो नयाः । तन्नया इति कः पदार्थः नयाः प्रापकाः कारकाः साधकाः निर्वर्तका निर्भासका उपलम्भका व्यञ्जका इत्यनर्थान्तरम् । जीवादीन्पदार्थान्नयन्ति प्राप्नुवन्तिकारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्ति इति नयाः ॥
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अर्थ -- शंका - ऊपर आपने जिन नैगम आदि नयोंका उल्लेख किया है, वे नय क्या पदार्थ हैं ? उत्तर-नय प्रापक कारक साधक निर्वर्तक निर्भासक उपलम्भक और व्यञ्जक ये सभी शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। जो जीवादिक पदार्थोंको सामान्यरूपसे प्रकाशित करते हैं, उनको न कहते हैं । जो उन पदार्थोंको आत्मामें प्राप्त कराते - पहुँचाते हैं, उनको प्रापक कहते हैं । जो आत्मामें अपूर्व पदार्थके ज्ञानको उत्पन्न करावें, उनको कारक कहते हैं । परस्परकी व्यावृत्तिरूप - जिससे एक पदार्थका दूसरे पदार्थमें मिश्रण न हो जाय, इस तरहके विज्ञप्तिरूप तथा सिद्धिके उपायभूत वचनोंको जो सिद्ध करें, उनको साधक कहते हैं । अपने निश्चित अभिप्रायके द्वारा जो विशेष अध्यवसायरूप से उत्पन्न होते हैं, उनको निर्वर्तक कहते हैं । जो निरंतर वस्तुके अंशका भास - ज्ञापन करावें उनको निर्मासक कहते हैं । विशिष्ट क्षयोपशमकी अपेक्षासे अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ विशेषोंमें जो आत्मा या ज्ञानका अवगाहन करावें उनको उपलम्भक कहते हैं । जो जीवादिक पदार्थोंको अपने अभिप्रायानुसार यथार्थ स्वभाव में स्थापित करें उनको व्यञ्जक कहते हैं ।
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भावार्थ - इस प्रकार से यहाँपर निरुक्तिकी अपेक्षासे नय आदिक शब्दोंका अर्थ यद्यपि भिन्न भिन्न बताया है । परन्तु फलितार्थमें ये सभी शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । अतएव जो नय हैं, वे ही प्रापक हैं, और वे ही कारक हैं, तथा वे ही साधक हैं । इत्यादि सभी शब्दोंके विषय में समझ लेना चाहिये ।
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भाष्यम् - अत्राह- किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन आहोस्वित्स्वतन्त्रा एव चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन विप्रधाविता इति । अत्रोच्यते । - नैते तन्त्रान्तरीया नापि स्वतन्त्रा मतिभेदेन विप्रधाविताः । ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यवसायान्तराण्येतानि । तद्यथा-घट इत्युक्ते योऽसौ चेष्टाभिर्निर्वृत्त ऊर्ध्व कुण्डलौष्ठायत वृत्तग्रीवोऽधस्तात्परिमण्डलो जलादीनामाहरणधारणसम्मर्द उत्तरगुणनिर्वर्तना निर्वृत्तो द्रव्यविशेषस्तस्मिन्नेकस्मिन्विशेषवति तज्जातीयेषु वा सर्वेष्वविशेषात्परिज्ञानं नैगमनयः । एकस्मिन्वा बहुषु वा नामादिविशेषितेषु साम्प्रतातीतानागतेषु घटेषु सम्प्रत्ययः सङ्ग्रहः । तेष्वेवलौकिकपरीक्षक ग्राह्येषूपचारगम्येषु यथा स्थूलार्थेषु संप्रत्ययो व्यवहारः । तेष्वेव सत्सु साम्प्रतेषु सम्प्रत्ययः ऋजुसूत्रः । तेष्वेव साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु घटेषु सम्प्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः । तेषामेव साम्प्रतानामध्यवसायासंक्रमो वितर्कध्यानवत् समभिरूढः । तेषामेव व्यंजनार्थयोरन्योन्यापेक्षार्थग्राहित्वमेवम्भूत इति ॥
शंका- आपने ये नैगम आदिक जो नय बताये हैं, उनको अन्यवादी - जैनप्रवचन से भिन्न वैशेषिक आदि मतके अनुसार वस्तुस्वरूपका निरूपण करनेवाले भी मानते हैं, अथवा
१ -- तत्र नया इति पाठः टीकाकाराणामभिमतः ।
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