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सूत्र ३, ४ ।]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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औदयिकके इक्कीस भेद और पारिणामिकके तीन भेद हैं । ये दो आदिक भेद कौन कौनसे हैं, सो आगे चलकर सूत्रक्रमके अनुसार बतायेंगे ।
कोई कोई विद्वान् यहाँपर सिद्धजीवोंकी व्यावृत्ति के लिये “ संसारस्थानाम् " अर्थात् ये भेद संसारी जीवोंमें पाये जाते हैं " ऐसा वाक्यशेष भी जोड़कर बोलते हैं। परन्तु ऐसा करना ठीक नहीं है । क्योंकि सभी जगह शब्दोंका अर्थ यथासंभव ही किया जाता है। सभी जीवोंमें सब भाव पाये जायँ ऐसा नियम नहीं है, और न बन ही सकता है। जैसे कि आदिके दो भाव सम्यग्दृष्टिके ही सम्भव हैं, न कि मिथ्यादृष्टिके, उसी प्रकार सिद्धोमें भी यथासम्भवही भाव समझ लेने चाहिये । उसके लिये “ संसारस्थानाम् ” ऐसा वाक्यशेष करनेकी आवश्यकता नहीं है।
क्रमानुसार औपशमिकके दो भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ भाष्यम्--सम्यक्त्वं चारित्रं च द्वावौपशमिको भावौ भवत इति । अर्थ-सम्यक्त्व और चारित्र ये दो औपशामिक भाव हैं।
भावार्थ-यद्यपि सम्यक्त्व और चरित्र क्षायिक औरक्षायोपशमिक भी हुआ करता है परन्तु औपशमिकके ये दो ही भेद हैं। इनमें से सम्यक्त्वका लक्षण पहले अध्यायमें कहा जा चुका है, और चारित्रका लक्षण आगे चलकर नौवें अध्यायमें कहेंगे । जिसका सारांश यह है, कि सम्यग्दर्शनको घातनेवाले जो कर्म हैं, तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबंधी कषाय इन सौतों प्रकृतियोंका उपशम हो जानेपर जो तत्त्वोंमें रुचि हुआ करती है, उसके। औपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं । और शुभ तथा अशुभरूप क्रियाओंकी प्रवृत्तिकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं। चारित्रमोहनीयकर्मका उपशम हो जानेपर जो चारित्र गुण प्रकट होकर शुभाशुभ क्रियाओंकी निवृत्ति हो जाती है, उसको आपैशामकचारित्र कहते हैं। यह चारित्र गुण ग्यारहवें गुणस्थानमें ही पूर्ण हुआ करता है। क्योंकि चारित्रमोहनीय की शेष २१ प्रकृतियोंका उपशम वहींपर होता है ।
क्रमानुसार क्षायिकके नौ भेदोंको गिनाते हैं:सूत्र-ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥
भाष्यम्-ज्ञानं दर्शनं दानं लाभो भोग उपभोगो वीर्यमित्यतानि च सम्यक्त्वचारित्रे च नव क्षायिका भावा भवन्ति इति ।
१--यह कथन सादि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे है, अनादि मिथ्यादृष्टि के मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिके सिवाय पाँच प्रकृतियोंके उपशमसे ही सम्यक्त्व हुआ करता है । २--सम्यग्ज्ञानवतः कर्मादानहेतु कियोपरमः सम्यक् चारित्रम् ॥
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