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सूत्र ३३.३४ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसत्रम् ।
भावार्थ--मिथ्यादृष्टि दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक भव्य दूसरे अभव्य । जो सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो सकते हैं, उनको भव्य कहा करते हैं, और इसके विपरीत हैं-जिनमें सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं है, उनको अभव्य कहा करते हैं । मिथ्यादृष्टिके दूसरी तरहसे तीन भेद भी हुआ करते हैं-एक अभिगृहीतमिथ्यादर्शन दूसरे अनभिगृहीतमिथ्यादर्शन तीसरे संदिग्ध । जो निनभगवान्के प्रवचनसे सर्वथा विपरीत निरूपण करनेवाले हैं, उन बौद्धादिकोंको अभिगृहीतमिथ्यादर्शन कहते हैं, और जो जिनभगवानके वचनोंपर श्रद्धान नहीं करते, उनको अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं, तथा उसपर संदेह करनेवालोंको संदिग्ध कहा करते हैं । ये तीनों ही प्रकारके मिथ्यादृष्टि भव्य भी हुआ करते हैं, और अभव्य भी हुआ करते हैं। परन्तु सभी मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टिके ही समान घटपटादिक और रूप रसादिकका ग्रहण और निरूपण किया करते हैं । फिर क्या कारण है कि सम्यग्दृष्टिके ग्रहणको तो समीचीन कहा जाय और मिथ्यादृष्टिके ग्रहणको विपरीत। क्योंकि बाधक प्रत्ययके होनेसे ही किसी भी ज्ञानको मिथ्या कह सकते हैं, अन्यथा नहीं। जैसे कि किसीको सीपमें चांदीका ज्ञान हुआ, यह ज्ञान इसलिये मिथ्या कहा जाता है, कि उसका बाधक ज्ञान उपस्थित है। सो ऐसा यहाँपर तो नहीं पाया जाता, फिर समीचीन और मिथ्याके भेदका क्या कारण है ? इसका उत्तर यही है, कि मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान विपरीत ही हुआ करते हैं। क्योंकि वे ज्ञान वस्तुके यथार्थ स्वरूपका परिच्छेदन नहीं किया करते । वे यथार्थ परिच्छेदन नहीं करते यह बात कैसे मालूम हो । अतएव इस बातको स्पष्टतया बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:- सूत्र-सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३३॥
भाष्यम् यथोन्मत्तः कर्मोदयादुपहतेन्द्रियमतिविपरीतग्राही भवति। सोऽश्वं गौरित्यध्यवत्यति गां चाश्व इति लोष्टं सुवर्णमिति सुवर्ण लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सुवर्ण सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्ण सुवर्ण लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनोपहतेन्द्रियमतेर्मतिश्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवन्ति ॥
__ अर्थ-जैसे कि कोई उन्मत्त पुरुष जिसकी कि कर्मोदयसे इन्द्रियोंकी और मनकी शक्ति नष्ट हो गई है, पदार्थके स्वरूपको विपरीत ही ग्रहण किया करता है, वह घोडाको गौ समझता है, और गौको घोड़ा समझता है, मट्टीके ढेलेको सुवर्ण मानता है, और सुवर्णको ढेला मानता है, कभी ढेलेको यह ढेला है, ऐसा भी जानता है, और सुवर्णको यह सुवर्ण है, ऐसा भी समझता है, तथा जैसा समझता है, वैसा ही कहता भी है, फिर भी उसके ज्ञानको अज्ञान ही कहते हैं। क्योंकि उसका वह ज्ञान ढेलेको सवर्ण
और सवर्णको ढेला समझनेवाले विपरीत ज्ञानसे किसी प्रकारकी विशेषता नहीं रखता । इसी प्रकार जिसकी मिथ्यादर्शन कर्मके निमित्तसे देखने और विचार करनेकी शक्ति तथा योग्यता नष्ट हो गई है, यद्वा विपरीत हो गई है, वह जीव जीवादिक पदार्थों के वास्तविक स्वरूपको न
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