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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथमोऽध्यायः
विषय भेदकी अपेक्षासे इस ज्ञानके दो भेद हैं। जो ऋजु - सामान्य - दो तीन पर्यायों को ही ग्रहण करे, उसको ऋजुमतिमनः पर्यायज्ञान कहते हैं, और जो विपुल - बहुतसी पर्यायों को ग्रहण कर सके, उसको विपुलमतिमनः पर्यायज्ञान कहते हैं । अर्थात् विपुलमतिमनः पर्यायज्ञान त्रिकालवर्त्ती मनुष्यके द्वारा चिन्तित अचिन्तित अर्ध चिन्तित ऐसे तीनों प्रकारकी पर्यायों को जान सकता है, परन्तु ऋजुमतिमन: पर्यायज्ञान केवल वर्तमानकालवर्ती जीवके द्वारा ही चिन्त्य - मान पर्यायों को ही विषय कर सकता है । इसके सिवाय यह दोनों ही प्रकारका ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करता । जैसे कि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी दर्शन पर्वक ही हुआ करता है, वैसे यह नहीं होता । यह ईहा नामक मतिज्ञानपर्वक ही हुआ करती है ।
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प्रश्न-- -जब कि मनः पर्यायज्ञानके ये दोनों ही भेद अतीन्द्रिय हैं, और दोनोंका विषयपरिच्छेदन- मनःपर्यायोंको जानना भी सरीखा ही है, फिर इनमें विशेषता किस बातकी है ? इसका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं.
सूत्र - विशुद्धयप्रतिपाताम्यां तद्विशेषः || २५ ||
भाष्यम् -- विशुद्धिकृतश्चाप्रतिपातकृतञ्चानयोः प्रतिविशेषः । तद्यथा- ऋजुमतिमनःपर्यायाद्विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । किं चान्यत् । ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानं प्रतिपतत्यपि भूयो विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानं तु न प्रतिपततीति ।
अर्थ — मनःपर्यायज्ञानके दोनों भेदोंमें विशेषता दो प्रकारकी समझनी चाहिये । एक तो विशद्धिकृत दूसरी अप्रतिपातकृत । मतलब यह है, कि एक तो ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानकी अपेक्षा विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान अधिक विशुद्ध हुआ करता है । दूसरी बात यह है, कि ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञान उत्पन्न होकर छूट भी जाता है, और एक वार ही नहीं अनेक वार भी उत्पन्न हो हो करके छूट सकता है । परन्तु विपुलमतिमें यह बात नहीं है, वह उत्पन्न होने के अनंतर जबतक केवलज्ञान प्रकट न हो तबतक छूटता नहीं ।
भावार्थ — ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानसे विपुलमतिमनः पर्यायज्ञान विशुद्धि और अप्रतिपात इन दो कारणोंसे विशिष्ट है । क्योंकि ऋजुमतिका विषय स्तोक और विपुल - मतिका उससे अत्यधिक है । ऋजुमति जितने पदार्थको जितनी सूक्ष्मताके साथ जान सकता है, विपुलमति उसी पदार्थको नानाप्रकारसे विशिष्ट गुण पर्यायोंके द्वारा अत्यंत अधिक
१ - तियकालविसयरूविं चिंतितं वमाणजीवेण । उजुमदिणाणं जाणदि भूदभविस्सं च विउलमदी ॥ ४४० ॥ २-नरमणसिट्टियमहं ईहामदिणा उजुट्ठियं लहिय । पच्छा पच्चक्खेण य उजुमदिणा जाणदे णियमा ॥ ४४७ ॥
- गोम्मटसार जीवकाण्ड |
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