________________
सूत्र २५-२६ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
११
3
सूक्ष्मता के साथ जान सकता है । अतएव विपुलमतिकी विशुद्धि - निर्मलता ऋजुमतिसे अधिक है । इसी प्रकार ऋजुमतिके विषयमें यह नियम नहीं है कि वह उत्पन्न होकर नहीं ही छूटे, किंतु विपुलमतिके विषय में यह नियम है । जिस संयमी साधुको विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसको उसी भवसे केवलज्ञान प्रकट होकर निर्वाण-पद भी प्राप्त हो जाता है | अतएव विपुलमति अप्प्रतिपाती है ।
भाष्यम् - अत्राह - अथावधि मनःपर्यायज्ञानयोः कः प्रतिविशेषः ? इति । अत्रोच्यते ।अर्थ - प्रश्न - मनः पर्यायज्ञानके दोनों भेदों में विशेषता किस किस कारणले है, सो तो समझमें आया; परन्तु अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञानमें विशेषता क्या क्या है, और किस किस अपेक्षा से है ? इसी बातका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं: -
सूत्र -- विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः ॥ २६ ॥
भाष्यम्--- - विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः स्वामिकृतो विषयकृतश्चानयोर्विशेषो भवत्यवधिमनःपर्यायज्ञानयोः । तद्यथा - अवधिज्ञानान्मनः पर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । यावन्ति हि रूपाणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते तानि मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि मनोगतानि जानीते । किं चान्यत् - क्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानमङ्गुलस्या संख्येयभागादिषूत्पन्नं भवत्या सर्वलोकात् । मनः पर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एव भवति नान्यक्षेत्र इति । किं चान्यत्स्वामिकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानं संयतस्य असंयतस्य वाँ सर्वगतिषु भवति मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति नान्यस्य । किं चान्यत्-विषयकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । रूपिद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्ववधेर्विषयनिबन्धो भवति । तदनन्तभागे मनःपर्यायस्येति ।
1
I
अर्थ — अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें विशुद्धि क्षेत्र स्वामी और विषय इन चार कारणों से विशेषता है । जिसके द्वारा अधिकतर पर्यायोंका परिज्ञान हो सके, ऐसी निर्मलता को विशुद्धि कहते हैं । क्षेत्र नाम आकाशका है । जिन जीवोंको वह ज्ञान हो, उनको उस विवक्षित ज्ञानका स्वामी समझना चाहिये । ज्ञानके द्वारा जो पदार्थ जाना जाय, उसको ज्ञेय अथवा विषय कहते हैं । इन चारों ही कारणों की अपेक्षासे अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञानमें अन्तर है । वह किस प्रकार है सो बताते हैं
अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्यायज्ञानकी विशुद्धि अधिक होती है । जितने रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानी जान सकता है, उनको मनःपर्यायज्ञानी अधिक स्पष्टतासे और मनोगत होनेपर भी जान लिया करता है । इसके सिवाय दोनों में क्षेत्रकृत विशेषता इस प्रकारसे है, कि अवधिज्ञानका क्षेत्र अङ्गुलके असंख्यातवें भागसे लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है । अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी उत्पन्न होनेसे तीसरे समय में जो शरीर की जघन्य अव
66
१" रूपीणि " इति पाठान्तरं साधु प्रतिभाति । २ - " मनोरहस्यगतानीव " इत्यपि पाठः । ३- वा इतिपाठोऽन्यत्र नास्ति । ४ - गुण संघात्मक रूपरसगंधस्पर्शयुक्त द्रव्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
ܕܕ
www.jainelibrary.org