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सूत्र १७-१८-१९ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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क्रमसे व्यंजनावग्रह तथा अर्थावग्रह कहते हैं । ईहा आदिक मतिज्ञानके शेष तीन विकल्प अर्थ - के ही होते हैं, व्यंजनके नहीं होते ।
भावार्थ — जिस प्रकार मट्टीके किसी सकोरा आदि वर्तन के ऊपर जलकी बूंद पड़ने से पहले तो वह व्यक्त नहीं होती, परन्तु पीछे से वह धीरे धीरे क्रम क्रम से पड़ते पड़ते व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार कहीं कहीं कानों पर पड़ा हुआ शब्द आदिक पदार्थ भी पहले तो अव्यक्त होता है, पीछे व्यक्त हो जाता है । इसी तरहके अव्यक्त पदार्थको व्यंजन और व्यक्तको अर्थ कहते हैं । व्यक्तके अवग्रहादि चारों होते हैं, और अव्यक्तका अवग्रह ही होता है ।
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इसके सिवाय व्यंजनावग्रहमें और भी जो विशेषता है, उसको बताते के लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥
भाष्यम् - चक्षुषा नोइन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । चतुभिरिन्द्रियैः शेषैर्भवतीत्यर्थः । एवमेतन्मतिज्ञानं द्विविधं चतुर्विधं अष्टाविंशतिविधं अष्टषष्ठयुतरशतविधं षट्त्रिंशत्रिशतविधं च भवति ।
अर्थ — यह व्यंजनावग्रह चक्षुरिन्द्रिय और मन इनके द्वारा नहीं हुआ करता है । मतलब यह है, कि वह केवल स्पर्शन रसन घाण और श्रोत्र इन बाकीकी चार इन्द्रियोंके द्वारा ही हुआ करता है । इस प्रकार से इस मतिज्ञानके दो भेद अथवा चार भेद यद्वा अट्ठाईस भेद या एक सौ अड़सठ भेद अथवा तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ।
भावार्थ – चक्षुरिन्द्रिय और मन ये दोनों ही अप्राप्यकारी हैं। अर्थात् ये वस्तुको प्राप्तसम्बद्ध न होकर ही ग्रहण करते हैं । अतएव इनके द्वारा व्यक्त पदार्थका ही ग्रहण हो सकता है, अव्यक्तका नहीं ।
मतिज्ञानके निमित्त कारणकी अपेक्षासे दो भेद हैं- एक इन्द्रियनिमित्तक दूसरा अनिन्द्रिय निमित्तक । अवग्रह ईहा अपाय और धारणाकी अपेक्षासे चार भेद हैं । तथा चारों भेद पाँच इन्द्रिय और छट्ठे मनसे हुआ करते हैं, अतएव चारको छहसे गुणा करनेपर २४ अर्थावग्रहादिके भेद होते हैं, और इन्हींमें व्यंजनावग्रह के ४ भेद मिलाने से २८ भेद होते हैं। क्योंकि व्यंजनका एक अवग्रह ही होता है, और वह चार इन्द्रियोंसे ही होता है । इन अट्ठाईस भेदों का बहु बहुविध क्षिप्र अनिश्रित अनुक्त और ध्रुव इन छह भेदोंके साथ गुणा करनेसे १६८ भेद होते हैं । और यदि इनके उल्टे अल्प अल्पविध आदि छह भेदों को भी साथमें जोड़कर बारहके साथ इन अठ्ठाईसका गुणा किया जाय, तो मतिज्ञानके तीनसौ छत्तीस भेद होते हैं ।
१ – सुणोदिस अपुढं चेव पस्सदे रूवं । फासं रसं च गंधं बद्धं पुढं विजाणादि ॥
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