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FAITH 45. - 9 रागाला
, - | समीप आदि।
अनेकान्त का अर्थ है, जो अनेक छोर स्वीकार करता है। शंका :- क्या अनेकान्त छल नहीं है?
समाधान :- नहीं। अनेकान्त न तो छल है और वह संशय वाचक भी नहीं है। छल | में पर के वचनों का विधात किया जाता है, परन्तु अनेकान्त में वचन विघात नहीं होता" अनेकान्त सुनिश्चित् मुख्य और गौण की विवक्षा से सम्भव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करता है।
अर्हत् - वचन अनेकान्त-भय है। अनेकान्त जैन दर्शन की दिव्य विभूति तथा जैनागम का मूल है। जिस प्रकार मूल के अभाव में वृक्ष का अस्तित्व नहीं रहा पाता. उसी प्रकार अनेकान्त के विना तत्त्वज्ञान का वृक्ष रह नहीं पाता। जिस प्रकार चन्द्रमा के विना चन्द्रिकाओं की गरिमा घोतित हो नहीं पाती, उसी प्रकार अनेकान्त रूपी चन्द्रमा के विना तत्त्वज्ञान की चन्द्रिकाएं ज्योतिहीन हो जाती हैं।
इस अनुपम सिद्धानको समही निगा इस छाती पर विभिन्न माम-पंथ-मत-और सम्प्रदाय आपस में विवाद कर रहे हैं। प्रत्येक धर्म या मत का अनुयायी दूसरे को असत्य | बताता है, परन्तु जिनेन्द्र-वाणी किसी को भी असत्य नहीं कहती अपितु उसके अनुसार समस्त मत सत्यांश है। अतः अर्हत वचन सैद्धान्तिक मतभेद रूपी रोग को नष्ट करनेवाली। रामबाण औषधि है।
अनेकान्त सत्य की दिव्य झाँकी दिखाता है, चिन्तन के क्षेत्र में अपूर्व प्रकाश फैलाता है तथा परस्पर विरोधि प्रतीत होने वाले धर्मों को एक सा खड़ा कर के उनका सौन्दर्य एवं महत्त्व बढ़ाता है। अतः अनेकान्त सम्पूर्ण सारभूत वस्तुओं में सार व समस्त नमस्करणियों में वह परम नमस्करणीय है। अनेकान्त का स्तवन करते हुए आ. अमृतचन्द्र लिखते हैं कि
परमागमस्थजीवं निषिद्ध जात्यंधसिंधुरविधानम्। सकल नय विलसिताना, विरोध मथनं नमाम्यनेकान्तम् ।
(पुरूषार्थ सिध्दयुपाय -२) अर्थ : - उत्कृष्ट आगम अर्थात् जैनसिध्दान्त का प्राण स्वरूप, जन्म से अंधे पुरुषों | के द्वारा होने वाले हाथी के स्वरूप विधान का निषेध करने वाले समस्त नयों की विवक्षा से विभूषित पदार्थों के विरोध को दूर करनेवाले अनेकान्त धर्म "स्याद्वाद" को मैं (आचार्यवर्य अमृतचन्द्र महाराज) नमस्कार करता हूँ।
सुविधि ज्ञान पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद