Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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सुबह होने पर आप वहां से पांजरापोल के उपाश्रय में पधार गये । सेठियों ने वहां आने का कारण पूछा। गुरुदेव ने अपने ध्यान में देखा हुवा दृश्य कह सुनाया। उनके कथनानुसार बात सत्य निकली । उसी दिन अग्नि का भयंकर प्रकोप हुवा। आग की लपटें हवेली होकर मार्केट होते हुए वाघनपोल तक जाकर महामुश्किल से काबू में आयी । आज भी अहमदाबाद में स्थित नगरसेठ की वह हवेली बलेली हवेली के नाम से प्रसिद्ध है।
सं. १९५८ में पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की निश्रा में सियाना में अंजनशलाका व प्रतिष्ठामहोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था । वहां समारोह में चूने के ६०-७० हाथ ऊंचे समवसरण की रचना की जा रही थी। समवसरण बनाते समय किसी त्रुटि के कारण वह ढह गया और ७-८ मजदूर नीचे दब गये । लोग घबरा गये । गुरुदेव को समाचार मिले । गुरुदेव ने कहा-"कोई बात की फिक्र न करो, किसी को भी कुछ नहीं होगा।" सचमुच ही लोगों ने देखा इतनी ऊंचाई से गिरने व इतना वजन उनपर आने पर भी किसी को कोई प्रकार की आंच न आयी । गरुदेव की वचनसिद्धि देखकर सब हर्षित होकर जय जयकार करने लगे।
कोटि-कोटि वंदन हो कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के चरणों में ।
वाघनपोल के नाके पर ही श्री महावीर स्वामी जी का जिनालय स्थित है । अग्निकाण्ड के समय जलने के भय से वहां से श्री महावीर स्वामीजी आदि की मूर्तियां उठाली गई थी। उन प्रतिमाओं को फिर से स्थापित करने के लिए एक प्रसिद्ध जैनाचार्य से वहां के सेठियों ने मुहुर्त निकलवाया । गुरुदेव को भी वह मुहुर्त बताया गया । गुरुदेव ने अच्छी तरह देखकर कहा कि यह मुहुर्त अच्छा नहीं है । इसमें कई विघ्नों के साथ सबसे बड़ा दोष तो यह है कि मूलनायक भगवान को विराजमान करने वाला व्यक्ति छः मास के अन्दर मृत्यु को पावेगा । बात को अनसुनीकर प्रतिष्ठा कार्य किया गया । नाना प्रकार के विघ्नों के दरम्यान कार्यक्रम सम्पन्न हुवा और प्रतिमा संस्थापन करने वाला व्यक्ति छः मास में ही मृत्यु को प्राप्त हुवा ।
आपके कथन की सत्यता देखकर लोग आश्चर्यचकित रह गये।
एक बार पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने अपनी साधना जालोर के पहाड़ में पूरी करने की ठानी । उस पहाड़ में एक शेर रहता था यह जानकर भक्तों ने उनसे विनंती की कि आप साधना के लिए कोई अन्य स्थान निश्चित् करें, यहां तो डरावना शेर रहता है । गुरुदेव ने कहा-"आप कोई चिंता न करें । गुरुकृपा से कुछ नहीं होगा" और उसी पहाड़ में ध्यान करने की ठानी। ___ यहां लोगों को कहां शांति थी । उन्होंने कुछ राजपूतों को रात्रि रक्षणार्थ भेजे । गुरुदेव के निकट ही वृक्ष पर वे छुपकर बैठ गये । रात्रि को शेर वहां आया और गुरुदेव के पास कुछ ही दूरी पर शांत होकर बैठ गया फिर कुछ समय पश्चात् शांति के साथ चला गया । सुबह जाकर उन लोगों ने यह बात' गांव के लोगों को बताई जिसे सुनकर गुरुदेव के अडिग ध्यानावस्था के आगे सभी नतमस्तक हो गये।
पूज्य गुरुदेव एक बार विहार करते-करते गांव मोडरा (राजस्थान) पधारे। गांव के पास का जंगल चामुण्ड वन के नाम से जाना जाता है। उस वन में शेर, चीता, भालू आदि सभी प्रकार के पशु रहते थे । गुरुदेव उस जंगल में ध्यानस्थ मुद्रा में रहे । उनके आध्यात्मिक व संयम के बल से सभी पशु अपना आपसी वैर भुलाकर एक साथ सामने आकर बैठ गये।
(७) संवत् १९५५ में आहोर में आपकी निश्रा में प्रतिष्ठा व अंजनशलाका महोत्सव चल रहा था। भगवान महावीर की विशालकाय मूर्ति २५-३० आदमियों द्वारा तो हिल भी नहीं सकती थी उसे विराजमान करने के लिए सभी सोच में पड़ गये। गुरुदेव ने ध्यान मग्न होकर अपने हाथ से उस मूर्ति को अंजन किया और अब उठाने को कहा । यह देखकर लोग ताज्जुब करते रह गये कि इतनी भारी मूर्ति को सिर्फ चार लोगों ने उठाया और वह भी जैसे फूल उठा रहे हों। सारा वातावरण जय जयकार के नारों से गूंज उठा।
(८) एक बार की बात है गुरुदेव किसी जंगल में ध्यान में खड़े थे। उस समय एक भील जंगल में शिकार के लिए आया । उसने दूर से देखा कि कोई सफेद जानवर होगा। यह सोचकर वह वहीं से तीर छोड़ने लगा । लेकिन सभी निशाने व्यर्थ जाते देख कर वह वहां से चलकर निकट आया । आकर देखा तो कोई महात्मा पुरुष ध्यानावस्था में खड़े थे। उसी समय वह गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना कर चला गया।
सं. १९४० में गुरुदेव अहमदाबाद में हठीभाई की वाडी में विराजमान थे । वहां रात्रि काल में अपने ध्यान दरमियान रतनपोल में स्थित नगर सेठ की हवेली को जलते देखा । अग्नि की लीला नगरसेठ मार्केट होती हई वाप्पन पोल के नाके पर महावीर जिनालय के पास आकर शांत होती दिखाई दी।
राजेन्द्र ज्योति
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