Book Title: Rajasthani Jain Sahitya
Author(s): Manmohanswarup Mathur
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 12
________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा विश्व-फलक पर राजस्थान की भूमि गौरवपूर्ण विविध रंगों को ग्रहण किये हुए है । वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, भाषा आदि में विविध सांस्कृतिक चेतना को समन्वित करने वाला यह अकेला प्रदेश है। यहाँ दुर्गाएं और सरस्वती एक ही पटल पर विराजमान है । यही कारण है कि राजस्थान के अणु-अणु में झंकृत रण-कंकण की ध्वनि और खड़गों की खनखनाहट के समान ही यहाँ के नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में अवस्थित ज्ञान-भण्डारों में तथा जन-जिह्वा पर सरस्वती-सेवकों की गिरा सुरक्षित है। इन ज्ञान-भण्डारों में बैठकर राजस्थान के मूर्धन्य जैन विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर साहित्य-निर्माण किया जिनमें उनके द्वारा विरचित भक्ति-साहित्य का अपना विशिष्ट महत्व है। राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार की जानकारी हमें महावीर स्वामी के लगभग एक शती बाद से ही मिलने लगती है। पांचवी-छठी शताब्दी तक यह व्यापक रूप से फैल गया। यही धर्म निरन्तर विकसित होता हुआ आज राजस्थान की भूमि पर स्वर्णिम रूप से आच्छादित है। राजस्थान में मध्यमिका नगरी को प्राचीनतम जैन नगर कहा जाता है । करहेड़ा, उदयपुर, रणकपुर, देलवाड़ा (माउण्ट आबू), देलवाड़ा (उदयपुर), जैसलमेर, नागदा आदि स्थानों में निर्मित जैन-मन्दिर राजस्थान में जैन धर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। राजस्थान के साहित्यिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यापारिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में यहां के जैनियों का अपूर्व योगदान रहा है। राजस्थान में जैनियों द्वारा लिखित साहित्य की परम्परा का आरंभ 5 वीं-6 ठी 1. मज्झमिका, प्रथम अंक, 1973 ई. (डा. ब्रजमोहन जावलिया का लेख)

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