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प्रस्तावना
ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते । परन्तु यही विद्यानन्द आप्तपरीक्षा (पृ० ३) के प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं । यथा__ "किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते-मोक्षमार्गस्य नेतारं.' इस पंक्तिमें यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है। किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थों में किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रन्थको सूत्र लिखते हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. १८४) में वे अकलङ्कदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं-"तेन इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति । ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ४॥ सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलङ्कावबोधने" इस अवतरणमें 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक (पृ. ३८) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय (श्लो. ३) का है। अतः मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं" श्लोकको उद्धृत करनेके कारण हम 'विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते। अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते । अतः इस पंक्तिमें सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नों के उद्भवकर्ता या तत्त्वार्थशास्त्र की भूमिका बाँधनेवाले आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए । आप्तपरीक्षा के
"इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा।
प्रणीताप्तपरीक्षेयं कुविवादनिवृत्त । ॥" इस अनुष्टुप् श्लोक में तत्त्वार्थशास्त्रादौ पद 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद के अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है । ३२ अक्षरवाले इस संक्षिप्त श्लोक में इससे अधिक की गुंजाइश ही नहीं है । 'मोक्षमार्गस्य नेतारं श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धिका ही मंगलश्लोक है। यदि पूज्यपाद खयं भी इसे सूत्रकारकृत मानते होते तो उनके द्वारा उसका व्याख्यान सर्वार्थसिद्धि में अवश्य किया जाता। और जब समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी आप्तमीमांसा बनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख है, तो समन्तभद्र कमसे कम पूज्यपादके समकालीन तो सिद्ध होते ही हैं। पं० सुखलालजी का यह तर्क कि-"यदि समन्तभद्र पूज्यपादके प्राकालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख -१ आ० विद्यानन्द अष्टसहस्री के मंगलश्लोक में भी लिखते हैं कि
"शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलक्रियते मयाऽस्य ।" “अर्थाद-शास्त्र तत्त्वार्थशास्त्रके अवतार-अवतरणिका-भूमिका के समय रची गई स्तुति में वर्णित आप्त की मीमांसा करनेवाले आप्तमीमांसा नामक ग्रंथका व्याख्यान किया जाता है। यहाँ 'शास्त्रावताररचितस्तुति' पद आप्तपरीक्षा के 'प्रोत्थानारम्भकाल' पद का समानार्थक है।
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