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बहुलम् ॥ २ ॥
बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आ शास्त्रपरिसमाप्तेः । ततश्च क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिद् अप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिद् अभ्यदेव भवति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः ॥ २ ॥
प्रथमः पादः
( प्रस्तुत व्याकरण ) शास्त्र के समाप्ति तक 'बहुल' का अधिकार है ऐसा जाने । और इसलिए ( इस शास्त्र में कहे हुए नियम इत्यादि की ) क्वचित् प्रवृत्ति होती है, क्वचित् ( वैसी ) प्रवृत्ति नहीं होती है, क्वचित् विकल्प होता है, और क्वचित् ( नियम में कथित से) भिन्न कुछ ( रूप या वर्णान्तर ) होता है । और वह हम योग्य स्थान पर बताएंगे ॥ २ ॥
आर्षम् ॥ ३ ॥
ऋषीणाम् इदं आषम् । आषं प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः | आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ॥ ३ ॥
ऋषियों का यह ( वह ) आर्ष ( प्राकृत ) है । भर्ष प्राकृत बहुल है। वह भी हम योग्य स्थान पर दिखाएंगे । ( प्रस्तुत व्याकरण में दिये हुए ) सर्व नियम आर्ण प्राकृत में बिकल्प से लगते हैं | ३ ||
दीर्घस्वौ मिथो वृत्तौ ॥ ४ ॥
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वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घह्रस्वौ बहुलं भवतः । मिथः परस्परम् । तत्र ह्रस्वस्य दीर्घः । अन्तर्वेदिः अन्तावेई । सप्तविंशतिः सत्तावीसा | क्वचिन्न भवति । जुवइ - ' जणो । क्वषिद् विकल्पः । वारीमई वारिमई । भुभयन्त्रम् भुआयन्तं भुञ्जयन्तं । पतिगृहम् पईहरं पड़हरं । वेलूवणं वेलुवणं । दीर्घस्य ह्रस्वः । निअम्ब सिल ४ - खलिअ - वीइमालस्स | क्वचिद् विकल्पः । जउँणय * जउँणायडं । नइ * सोत्तं नईसोत्तं । गोरि हरं गोरीहरं । वहुमुहं वहूमुहं ।
१. युवतिजन ।
३. वेणुवन ।
५. यमुना तट । ७. गौरीगृह ।
वृत्ति में यानी समास में ( आदिम पद के अन्त्य ह्रस्व या दीर्घ ) स्वरों के दीर्घ और ह्रस्व स्वर बहुलत्व से होते हैं । ( सूत्र में से ) मिथ: ( शब्द का अर्थ ) परस्पर में है ( यानी ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर होता है और दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर होता है ) । उनमें - ह्रस्व स्वर का दीर्घं ( होने का उदाहरण ) : - अन्तर्वेदि सत्तावीसा । क्वचित् ( ह्रस्व स्वर का दोर्घ स्वर ) नहीं होता है । उदा० - जुवइ
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२. वारिमति ।
४. नितम्ब - शिला स्खलित वीचि - मालस्य ।
६. नदी-स्रोतस् ।
८. बधूमुख ।
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