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प्रथमः पादः
अथ प्राकृतम् ।। १ ।। अथशब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्च । प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् । संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते। संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनैव गतार्थम् । प्राकृते च प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गकारकसमाससंज्ञादयः संस्कृतवद् वेदितव्याः। लोकाद् इति च वर्तते। तेन ऋऋलुलऐऔङञशषविसर्जनीयप्लुतवों वर्णसमाम्नायो लोकाद् अवगन्तव्यः । ङौ स्ववर्यसंयुक्तौ भवत एव । ऐदौतौ च केषांचित् । कैतवम् कैअवं । सौन्दर्यम् सौंअरि। कौरवाः कौरवा । तथा अस्वरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थीबहुवचनं च न भवति ॥ १॥
( सूत्र में ) 'अप' शब्द 'अनन्तर' अर्थ में था ( नूतन विषय का ) 'आरम्भ' अर्थ में प्रयुक्त है। प्रकृति यानी संस्कृत ( भाषा ) । वहाँ ( यानी संस्कृत में ) हुआ अथवा बहाँ से ( = संस्कृत से ) आया हुआ ( यानी उत्पन्न हुआ) प्राकृत है । संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का प्रारम्भ किया जाता है । सिद्ध और साध्यमान ( ऐसे दो प्रकार के ) शब्द होनेवाला संस्कृत जिसका मूल ( = योनि ) है, वह प्राकृत ऐसा उस प्राकृत का लक्षण है और यह लक्षण देश्य का नहीं, इस बात का बोध करने के लिए 'संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का विवेचन' ( ऐसा कहा है )। तथापि जो प्राकृत संस्कृत-समान है वह ( पहले कहे हए ! संस्कृत के व्याकरण से ज्ञात हुआ है। तथा प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास, संज्ञा, इत्यादि संस्कृत के अनुसार होते हैं ऐसा जाने। और लोगों से' ( - लोगों के व्यवहार से ) यह भी ( यहाँ अध्याहृत है)। इसलिए ऋ, ऋ, लू, ल, ऐ और औ, ङ्, ञ् , श् , और , विसर्ग तथा प्लुत छोड़कर ( प्राकृत में अन्य ) वर्ण समूह लोगों के व्यवहार से जानना है। अपने वर्ग के व्यंजन से संयुक्त रहनेवाले ङ और ञ् वर्ण ( प्राकृत में ) होते ही हैं; और कुछ लोगों के मतानुसार ऐ और औ ( ये स्वर भी प्राकृत में होते हैं )। उदा.- कैतवम् .. .. 'कोरवा । तथा स्वररहित व्यंजन, द्विवचन और चतुर्थी बहुवचन ( ये भी प्राकृत में ) नहीं होते हैं ॥ १ ॥
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