Book Title: Paumsiri Chariu Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 28
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य * १. सने १९३० - ३१ मां हुं पूज्य मुनिश्री जिनविजयजी साथै पाटणना भंडारो जोवा माटे गयो हतो. मारो मुख्य उद्देश भंडारोमा रहेलं अपभ्रंश साहित्य विगतसर जोवानो हतो. स्व० चिमनलाल दलालना 'पाटणना भंडारो अने तेमां रहेलुं अपभ्रंश अने प्राचीन गूजराती साहित्य' ( पांचमी गूजराती साहित्य परिषदनो अहेवाल ) ए लेखे मारुं ध्यान पाटणना भंडारोमा रहेला अपभ्रंश साहित्य : उपर खेंच्युं हतुं. धाहिलना प्रस्तुत काव्य 'पउमसिरिचरिउ' नो उल्लेख में तेमना लेखमां प्रथम ज जोयो हतो. ते साथे देवचंदना 'सुलक्खाणु' अने वरयत्तना 'वयरसामिचरिउ 'नो उल्लेख पण ते लेखमां में प्रथम ज जोयो हतो. पाटणना भंडारो जोवा त्रणेक अठवाडीओ में गाळ्यां हतां. ते दरमियान में उपर नोंघेलां त्रण काव्यो उतारी लीधां हतां. भंडारो बताववामां पू. मुनिश्री पुण्यविजयजीए पण घणी ज साहाय्य करी हती. ते ज रीते आ काव्यो उतारीने में तेमनी साथे बेसी मूळ हाथप्रतो साथ सरखाव्यां हतां प्रतिओ घणी ज जूनी हती. लिपि पण तत्कालीन चालू हती अने वांचवामां छेक तो सरलता हती ज नहि अने तेमां - खास करीने 'पउमसिरिचरिउ 'मां - लहिआनी अशुद्धिओ अने लेखनशैली एवी तो विलक्षण हती के वांचीने अर्थयोजना करवी ए विषम कार्य हतुं मुनिश्री पुण्यविजयजीना आ प्रकारनी प्रतिओ घांचवाना विपुल महावरानो में घणो ज लाभ उठाव्यो हतो. आ काव्यो अंगे तेमणे अत्यंत श्रम लईने घणां सूचनो कर्यां हतां ते माटे हुं तेमनो ऋणी छु. में ते वखते बीजां पण अनेक नानां नानां अपभ्रंश स्तवनो उतारी लोधां हतां, परंतु मुख्यतया आ धाहिलनुं 'पउमसिरिचरिउ', वरयत्तनुं 'वयरसामिचरिउ' भने देवचंदनुं 'सुलखाणु' ए खास संपादन करवानी दृष्टिए उतारी लीधां हतां. सने १९३२ - ३३ मां आ त्रणेय काव्योनी मुद्रण - प्रति ( Press Copy ) तैयार करी राखी हती अने ए बध उपर सारी रीतनां टिप्पणो अने अन्य माहिती पण मेळवी राखी हती. कार्यने आम तो छेवटनो ओप आपको बाकी रह्यो हतो, परंतु काव्यो सर्वांगे समजवानी आकांक्षा संतोषाई गई एटले व्यवस्थित खरूपे तेनुं संपादन करी छपाववा - करवामां आळस थई गई अने करेला तैयार साधनो साचवीने राखी मूक्यां पू० मुनिश्री जिनविजयजीए आ काव्योनुं संपादन करी प्रकाशित करवा मारुं ध्यान वारंवार दोरेलं, पण आकांक्षाना अभावने ली अने अन्य अनेक व्यवसायोमां गळाडूब पडी जवाथी तेमनी आज्ञानी उपेक्षा थती रही - अनेसने १९४६नी साल आवी. छेवटे भारतीय विद्या भवन मारफते तेमनीज दोरवणी ठळ प्रो. हरिवल्लभ भायाणीए धाहिलना 'पउमसिरिचरिउ 'नुं संपादन कार्य हाथमां लीधुं. पू० मुनिजीए फरीथी मारुं ध्यान दोयुं, अने छेवटे में अने मारा मित्र प्रो. भायाणीए एकला धाहिलना 'पउमसिरिचरिउ' नुं ज नहि पण वरयत्तना 'वयरसामिचरिउ ' नुं पण साथ संपादन पउम• प्र० 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.orgPage Navigation
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