Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 114
________________ पं० १६१ - १८२ ] चत्थ संधि ॥ धत्ता ॥ हरिसुप्फुल्लिये मुह - कमलु । अंते उरु पुर- जणु सयलु ॥ १६१९ [१४] पण विणु भयवइ भाविं सिरिविजय - नराहिवु वंदइ " जय भयवइ निम्मल-गुण-निहाणु जय भयवइ निह-असेस- दोस थोऊणं नरिंदु स-उर- लोउ पउमसिरि धम्म- देसण करेइ मिच्छत्त- कसाय - विमूढ-चित्तु गुरु-पावारंभहि जो पयतुं पंचिंदिय मारइ मंसु खाइ ओकत्तण कर - सिर- छेयणाउ तिरिए वि दुक्खर अह घणीइँ sevaण-मारण- खुह- पिवास मणुए इ धण-हरणाइँ सो[52]गदेवेसु वि सोक्खहँ को इ लेसु चउ-गई संसारि भमंतहु एक्कु विखणु सोक्खु न जीवहु 19 मं अहु भवियहु हिय उवएस एहु हणहु जीव सच्चं चवेहु आरंभि परिग्गहि नियम लेहु संमत्त-नाण- दंसण-चरित्तु जिणु मणि अवलंत्रेंवि करहुँ झाणु कंतिमइ न[52B]मेंवि भयवइ भणेइ "चित्तम - सिहंडि किह मह मणोज्जु पेक्खंतहँ तिं निग्गिलिङ हारु 26 Jain Education International उप्पन्न अणोवमु दिव-नां ॥ ६२ जय सासयसिवपुरि-कय-निवास" ॥ ६३ महियलि[51B] निसन्न वड्डिय-पमोउ ॥ ६४ " संसारि जीउ जिम्व संभमेइ ॥ ६५ अहि-कम्मु वंधई विचितुं ॥ ६६ पत्रयण- पडिणीउँ निसंस-चित्तु ॥ ६७ कय- पाव - कम्मु सो नरइ जाइ ॥ ६८ अणुहवइ विचित्त वेयणा ॥ ६९ गुरु- भारारोवण-वंधाणइँ ॥ १७० परवसुं सहेइ दारुण-किलेस ॥ ७१ जर खास - सास- पिय-विप्पओगे ॥ ७२ तियसिंद-पमुह - सुर- किंकरे ॥ ७३ ॥ घत्ता ॥ कम्म-नियल - संतावियहुँ (१) । जम्म-मरण-संतावियहु ॥ ७४ ३९ [१५] जि-धम्मि सया उज्जमु करेहु ॥ ७५ पर- धणु परदारे परिहरेहु ॥ ७६ निसि - भोयणु महु-मज्जइँ चएहु ॥ ७७ संसार - महोयहि-जाणवत्तु ॥ ७८ जिं पावहु सासउ परम-ठा” ॥ ७९ ससुरासुरु पुर-जणु जह सुणेइ ॥ १८० कह गिलिङ हारु अवणेइ चोज्जु ॥ ८१ कहि भयवइ अम्ह करि पसाउ" ॥ १८२ 1 हरिसुफुलिउ 2 निहाणुं. 3 नाणुं. 4 निहिय. ° 5 थोउण. 6 यंत्रइ. 7 विचीतु. 8 जे. 9 पयत्त. 10 निसेस. 11 विचितहु. 12 वेयणाहु. 13 षणाई. 14 थरवसु. 15 सोस. 16 पियविप्पउरा. 17 चौगइ. 18 For संदाणिय हु ? 19 एको. 20 परध गुं. 21 परदारा. 22 मज्जुई. 23 संसारि. 24° महोरहि 27 हाणुं. 25 करहुं. 26 झाणुं. For Private & Personal Use Only 5 10 15 20 25 www.jainelibrary.org

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