Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 115
________________ 20 ४० 25 पडमसिरि असेसु ई पुध-बुत्तुं पणमेव खमावइ खित्तपालु पउमसिरि-चरिउ निसुणेवि रम्मु कंतिमइ -कंतु कित्तिमइ-नाहु सुय- देवय व जा सुप्पस 10 वर कइ - कह व जा सुप्पसन्न हिमगिरि-य व जा भव- विरत्त अब्भत्थिएण दूलज्जियाऍ पउम सिरिचरिउ मइँ रइउ एउ सुय-देवय निम्मल बुद्धि देउ 15 अणुराय -[ रत्त ? ]-पंकय-दलच्छिं सो जाणइ धम्माहम्म भेउ ससिपाल - कवें- कई आसि माँहु ( ? ) तसु निम्मलि वंसि समुब्भवेण [T]णु-पंजरु जज्जरु मेल्लिवि दूरुज्झिय-संसार-भय । जिणुं दिवदिट्ठि जहिँ अच्छइ तहिँ भयवइ प[53] उमसिरि गय ॥ ८७ [१६] कवि- पासहँ नंद जिण - चलणह भत्तउ पउमसिरि चरिउ जाव इयं सज्झाए तावखवेइ पुराणं 1 इं. 2 ° वत्तु लक्खण. 9 सुन्नय. 15 कवु. 16 कय. 22 ॥ मंगलं महाश्री ॥ [ पं० १८३ - १९९ निय - चरिउ कहइ जं जेम वित्तु ॥ १८३ सहुँपुर-जणेण जं दिन्नु आलु ॥ ८४ पडिवज्जहिं केवि गिहत्थ धम्मु ॥ ८५ गहिऊण दिक्ख हुय भाव- साहु ॥ ८६ ॥ घत्ता ॥ Jain Education International पंकय-कर पोत्थय-कमल- हत्थ ॥ ८८ सुह- लक्खणं सुबय ( ? ) ° विणयवन्न ॥ ८९ तवचरण - समुज्जय नियम- सत्त ॥ १९० विणण साहुजण-रंजियाऍ ॥ ९१ जो पढइ सुणइ तसु होइ सेउ ॥ ९२ अंवाई" दुक्खइँ अवहरेउ ॥ ९३ घरण व तासु घरि वसइ लच्छि ॥ ९४ अचिरेण होई[53] तसु दुक्ख छेउ ॥९५ जसु विमल कित्ति जगु भमइ साहु ॥ ९६ पउम सिरिचरिउ किउ धा हि लेण ॥ ९७ ॥ घत्ता ॥ दोस - विमद्दणु तायह पोत सूरा इंहिं महासइहि" दिव दि ट्ठि निम्मल मइहि ॥९८ * काले वट्टइ सुहेण भावेण । नवयं पावं न बंधे " ॥ १९९ [ इइ चउत्थ संधि ] 3 गहिउण. 3 णुं 5 जिणुं. 6 सुपसंव्व 7 करकयक. 8 सुस 10 नव. 11 नियम्म'. 12 रंजिया इ. 13 अंवाइ. 14 °दलच्छ, 17 नाहु. 18 नंद. 19 विमद्दणुं 20 महासइंहिं. 21 मइंहिं. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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