Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 118
________________ टिप्पण १०९. निम्मल नाणु संदर्भमां बेसतुं नथी, एटले निम्मल-नाणि एवो पाठ कल्पी भाषांतरमा अर्थ घटाव्यो छे. ११३. तिहिने षष्ठीनुं रूप गणी 'तेमने (ध न श्री वगेरेने) आप्यां' एम अर्थ करी शकाय; अथवा तो तेने तृतीयाचं रूप गणी बहुवचन मानार्थे घटावी, मुनि धर्मघोष साथे लई शकाय : 'तेणे (धर्मघोषे) (तेमने) आप्यां.' ११६. महमह. मह (महत्)+मह (उत्सव)= महोत्सव. ११७. सामिहत्थ. मूळ पाठ साहम्मियत्थ (साधर्मिकार्थम्) जेवो हशे एम धारी अर्थ कर्यो छे. सामिहत्थ ए साहमित्थ नो लेखकप्रमादथी थयेलो व्यत्यय रजू करे छे एटलं अनुमान तो स्वाभाविक छे. पण पछी साहमित्थर्नु साहम्मियत्थ करवा जतां बे मात्रा वधी जाय छे ने छंदनुं माप जळवातुं नथी. १३१. मूळ पाठ घरुयारु जेवो छे; आ परथी मुद्रित पाठमां घरु सारु कल्पेलुं छे; पण घरवार 'घरबार' एवो शुद्ध पाठ होवा वधारे संभव छे. शब्द को ष मां घरवार शब्द ज नोध्यो छे. १३३. आणवडिच्छा 'आज्ञाधारक, वशंवद.' आ अपभ्रंशनो एक लाक्षणिक शब्द छे. १३५. ईसी. भाषांतरमां एने ईषत्तुं रूपांतर गणी 'जराक' अर्थ को छे, पण ईसी-ईसिइ (ईय॑या) 'ईर्ष्याथी' एम अर्थ करवो ए ज ठीक छे. १३८. पाडेमि वजु. 'वज्रपात थवो-करवो, 'मोठं संकट पडवु-पाडवू' ए अर्थमां आ अपभ्रंशनो लाक्षणिक प्रयोग छे. सरखावो : तहो सिरे निवडउ वज (ख यं भू च्छं द सू ४-४ ). १३९. तिएँ. छंद जाळववा तीऍ वांच. १४५. मुद्रित जं नियहने स्थाने मूळमां यंववह छे. आ उपरथी साचो पाठ वंधवह होय ए वधारे संभवित छे. अर्थदृष्टिए पण ते योग्य छे. भाषांतरमा वंधवह पाठ लईने ज अर्थ घटाव्यो छे. नायरंकु ते नाइ रंकुने स्थाते होवानुं गणी 'जाणे के रंक होय' एम अर्थ को छे. १४७. सभाओ-सम्भाअओ-स्वभावतः १४९. झियंतु 'धमातो' ए अर्था मळतो नथी. मात्र संदर्भने आधारे आ अर्थनी अटकळ करी छे. प्रचलित अर्थ क्षीयमाण लईए तो 'क्षीण थतो अग्नि (कोई कारणधी फरी) प्रज्वलित थाय तेम धन श्री ना वचनथी......' ए रीते अर्थ लई शकाय. १५०. पालोत्ति-पालुत्ति (पाद+ लूती). लूता(लूतिका) 'करोळियो' संस्कृतमा प्रचलित छे. १६०. पूर्वार्धमा १६ ने बदले १७ मात्रा छे, एटले पाठ निर्दोष नथी. १६१. नवकुंदेंदुसमुजलिय एम सुधारेला पाठने बदले मूळ पाठ नवकुंदेंदुलमुज्जलई, अने कुलइँ निय ने बदले मूळ पाठ नियकुलई ज वधारे सारा छे, एटले एमां कशो फेरफार करवानी जरूर नथी. १७०. हउ-हउँ (अहम् ) 'हूं'. १७३. वहुअदृदुहट्टई भग्गमरट्टई ने स्थाने वहुअदृदुहट्टहि भग्गमरट्टहि पाठ जोईए. अदृदुइट्ट-आर्तदुःखार्त. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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