Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
________________
टिप्पण [अपभ्रंश शब्दोनी साथे कोसमां संस्कृत पर्याय मूकेला छे.
मुद्रित पाठमां ज्या ज्या मूळ पाठ भ्रट के व्याकरण, छंद अगर अर्थनी दृष्टिए अस्पष्ट के शंकास्पद लाग्यो छे त्या त्यां वाजुमा प्रश्नार्थर्नु चिन्ह मूकेलं छे ने केटलेक स्थळे पादनोंधमा ए अशुद्धि के भ्रष्टता दूर करवा माटेनां सूचन पण आपेलां छे. प्रस्तुत टिप्पणमां आवां शंकास्थानोमाथी जेमने विशे कोई विशेष कहेवानुं छे तेमनो ज उल्लेख करेलो छ.]
प्रथम संधि प्रारंभना छंदमां दिव्यदिदि (दिव्यदृष्टि) ए कविन उपनाम गूंथेलं छे. प्रत्येक संधिना अंतमां पण ते मूकेलुं छे.
संधिनी आदिघत्तामां तारनहावि-तारुण्यभवेन के तारुण्यभवे लई 'तारुण्यथी उत्पन्न थयेला (कपटभावथी) एवो अर्थ अथवा तो 'तरुण वयमां (भव--वय?)' एवो अर्थ कदाच घटावी शकाय.
संधिनी आदिघत्तानी बीजी पंक्ति(दुय अणि जिह अन्नभवि)नो संबंध पहेला कडवकनी पहेली पंक्ति (तिह कहवि) साथे छे. एटले भाषांतरमां 'जे रीते अप्रिय वनी,' एम पूर्ण. विरामने स्थाने अल्पविराम जोईए. ४. भाषांतरमा धम्मु-धर्म्यम् लई तेने पउमलिरिचरिउना विशेषण तरीके घटावी अर्थ कर्यो छे, अने सुणहने मात्र काव्यभंगीथी पुनरुक्त थयेलं गणी, निमुणेहुने क्रियापद तरीके लीधुं छे. बीजी रीते, सुणहनो पण अर्थ करचो होय तो आम थशे, 'ते हुँ विशेषे
करीने कहुं दु; धर्मनुं श्रवण करो. रम्य,......एवं पभ श्री च रि त तमे सांभळो'. ६-७. चंदप्पह (चन्द्रप्रभ): आठमा जैन तीर्थंकर. महसेण (महासेन) तेमना पितार्नु
नाम अने लक्खण (लक्ष्मणा) तेमनी मातानुं नाम. १२. मूळ पाठ तियलोक[ना]हु (त्रिलोक-नाथः) होय. १४. छठी पंक्तिथी नवं वाक्य शरू थयेलु गणीए तो ते वाक्य चौदमी पंक्ति सुधी चालु रहे छे,
कारण के पंदरमी पंक्तिथी नवो विषय अने नधुं वाक्य शरू थाय छे ते स्पष्ट छे. पण ६ थी १४ पंकि वचे पणमेप्पिणु अने पणमिवि एम बे संबंधक भू. कृ. ज आवे छे, एके पूर्ण क्रियापद नथी आवतुं. ए रीते वाक्य अपूर्ण, अद्धर लटकतुं रहे छे. एटले भाषांतरमा कर्यु
छे तेम चोथी पंक्तिमाथी तिह कहविने अहीं अध्याहार्य गणबुं जोईए. १५. 'सुवेस-सु+वेश्मन्. उजलसुवेसुने बहुव्रीहि गणवो. १६. हरिकमलाउलाई लिष्ट छे. हरि अने कमलने कंतार, सरोवर ने राउल त्रणेयनी
साथे जुदाजुदा अर्थमा लेवाना छे. १७. गूळना सहु सुय लोग सालिनो अर्थ न थतो होवाथी सालि ने लोगनो व्यत्यय
थयो मानी सहु सुयसालि लोग एम पाठ सुधागों छे. वळी मूलगा मुणि दियवर छे (अने आगळ उपर पं.६८ मा मुणि दियवरहं मळे पण है), छत्ता प्ररनुन पंक्तिमा पूर्वाधने अंते ज मुणिवर शब्द आवेलो छे एने लीधे आ मुणि निरर्थक बनी जाय छे तेथी गुणि एवो पाठ कल्प्यो छे. पउम० प्र०6
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124