Book Title: Paumsiri Chariu Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 52
________________ द्वितीय संधि पुष्ट उरुयुगल, रक्तकमलना दळ समान सुकुमार चरण, चंद्रकिरण समान नख, मंथर गति, समग्र कलासमूह, ज्ञान, कोयलना टहुकारने ये कडवो करे तेवी वाणी, केतकी ने कपूर समान सुगंधी श्वास, देवीओना विलासने पण धुस्कारे तेत्री लीला-(आ बधाथी युक्त,) उत्तम वंशमां उत्पन्न थयेली अने नवीन गुणोथी शोभती एवी (प मधी) त्रिभुवनने जीतवानी आशावाला काम देव नी चापयष्टि (जेवी) हती. कड व क ४ एक वार काम दे व नो प्रिय बंधु अने उत्तम विलास युक्त वसंत(चैत्र)मास आव्यो. अशोकवृक्ष विकसित अने सुवासित बन्यां हता. उमची (?) बहु मघमघती हती. आंबा महोर्या हता, अने (तेमना उपर) असंख्य फूलो हतां (?). कोपेला कंथने तरुणीओ मनावती हती. पलाशवृक्षो रताश पडतां फूलोथी शोभतां हता-जाणे के ए फूलो मदन थी विह्वल बनेला माटे पाश न होय (?). कोयलनो मधुर टहुकार प्रसरतो हतो--जाणे के ते काम दे व नो धनुषटंकार न होय ? बे हाथ ऊंचा करीने चर्चरीओ देती ने मदमां घूमती तरुणीओ नाचती हती. (ए वेळा) एक दिवसे ते बाळा पद्मश्री धोळां फूलोनी माळाथी वाळ बांधी, कस्तूरीना तिलक वडे वदन शोभीतुं करी, गाल पर सुंदर पत्रलेखा आलेखी, चंपाना ताजा फूलनुं कर्णपूर पहेरी, कुंडळना मणिमाथी (नीकळतां) किरणोए करीने सूर्यने (पण) ढांकी देती, कंठमां रत्नाभरणोनो भार अने स्तनयुगलपर झळहळतो हार धारण करी, हाथमा नवां आकर्षक कंकणो पहेरी, सर्वांगे हरिचंदननो लेप करी, विशाळ नितंबने मणिमेखलाथी मंडित करी, सुंदर चरणोने उत्तम नूपुरोथी भूषित करी, मालानो आदेश लई, प्रफुल्ल चित्ते, प्रिय सखीओथी वीटळाईने अपूर्व श्री (नामना) उद्यानमां गई. कडवकप उद्यानने जोईने हर्षित मने वसंतसेना हाथ ऊंचो की कहवा लागी, "सखी, उद्यान. लक्ष्मी तो जो! हे मृगाक्षी, (जो पेला) नवपल्लवयुक्त बाल वृक्षो, (अही) जो! चंपो, तिलक अने आंबो -त्रणे कामदेवनां वाण समां. (आ) भ्रमरोथी मुखर बनेलो विकसित अशोक --- जे विरहिणीओने माटे तो घणो शोकप्रद छे. (आ) पवनमा हलतां ऊंचां तमाल भने ताल वृक्षो-जाणे के काळा (?) वेताळ न नाचता होय ? (आ) धव, लकुच ने जूईनी नवी कळीओ ( जो)-जाणे के छ मासनां मुक्ताफळ न होय? विकसेला दळवाळा, ......... अनुपम सुवर्णकांति धारी रह्यां छे. भमराओ केतकीने तारवीने बकुल पर लागी गया छे. (ए तो) जेने जे मनगमतुं होय तेमां ते रक्त बो (?). पेली जाई हाथनी आंगळीओ ऊंची करीने जाणे के भ्रमरयुवकने बोलावी रही छे. पेलु महोरेलु पाटलवृक्ष जो - जे मानिनीओना मानने निर्मूळ करवाना काममा दक्ष छे. सहकार तो आ जगतमा महावृक्ष (गणाय). कोईक (त्यां) प्रियतमा साथे झूले छे.” त्यां जातजातनी रमतो रमीने पद्मश्री देवीनी जेम ते वनमा फरवा लागी. कोई एक सखी बोली, "सूर्यना किरणो (हवे) निष्ठुर बन्यो छे. तो हे प्रिय सखी, आपणे आ माधवीमंडपमा एक क्षण बेसीये." कड व क ६ __ एटलामा मत्त कुंजरना जेवी मंथर गति वाळो समुदत (त्यां) आव्यो. तेणे माधवी लताना मंडपमा सखीओ सहित नीरांते बेटेली पा श्री दीठी (ने ते बोली उठ्यो): "कंदर्प राजवीनी राजधानी समान भा नवयुवान कृशोदरी कोण छ ? तेना मुखकमळमांधी नीकळता सुगंधी श्वासमा लुब्ध बनेला मुग्ध भ्रमरोने ते लीलाकमळथी मारी (हठावे छे). विकसित पाटल फूल समान भांखोवाळी शुंए ते व न श्री छे, देवी छे के वसंत लक्ष्मी छ ? शुं ते म द नरहित र ति छे, पउम० प्र० 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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