Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 67
________________ ४० पद्मश्रीचरित देवो, असुरो ने नगरजनो सांभळे तेवी रीते कांतिमती कहेवा लागी, “मारो चित्रेला सुंदर मोर हार गळीने केवी रीते लई जाय ए एक आश्चर्य छे, (अने) सौना देखतां ज तेणे हारने ओकी काट्यो. हे भगवती, कृपा करी अमने ए समजावो." पद्मश्री ए पोतानुं पूर्वोक्त चरित ( ने तेमां ) जे कांई बन्युं हतुं ते बधुंय कयुं. आळ चडाव्युं ते माटे नगरजनो सहित क्षेत्रपाल खमाववा लाग्यो. पद्म श्री नुं सुंदर चरित सांभळीने केटलाके सागारधर्म स्वीकार्यो. कांति मतीना अने कीर्तिमतीना पति दीक्षा लई भावसाधु थया. शरीररूपी जर्जर पींजराने छोडीने (ने) संसारना भयने दूर टेलीने भगवती पद्म श्री ज्यां दिव्य दृष्टि जिन छे त्यां गई. कडक १६ जे श्रुतदेवतानी जेम सारी रीते प्रशंसायोग्य, पंकजकर ( १ हाथमां रहेला कमळवाळी, २. कमळसमान हाथ वाळी ), हाथमा रहेला पुस्तकवाळी छे; जे उत्तम कविनी कथा जेम सुप्रसन्न ( १ . अतिशय प्रसाद गुणथी युक्त, २. सारी रीते प्रसन्न ), शुभलक्षण ( १ . व्याकरणशुद्ध, २. सारां लक्षणवाळी ), सुंदर वृत्त (१. छंदो, २. आचरण) वाळी (?) ने विनय युक्त (...... वर्णवाळी ? ) छे; हिमालयनी पुत्री ( उमानी) जेम जे भवविरक्त (१. शंकरमा अतिशय रागवाळी, २. संसारथी विरक्त ), तपश्चर्यामां उद्यत अने नियममां आसक्त छे; जेणे विनयथी साधुजनो ने प्रसन्न कर्या छे एवी दूल जियानी अभ्यर्थनाथी में आ पद्मश्रीचरित रच्युं छे. जे कोई एनुं पठन करे के सांभळे तेनुं श्रेय थाय; तेने श्रुत देव ता निर्मळ बुद्धि आपो; अंबामात (vi) दुःख हरो; कमळपत्र जेवी आंखोवाळी लक्ष्मी अनुरागथी आसक्त गृहिणीनी जेम तेना घरमा वास करशे; ते धर्म ने अधर्मनो भेद जाणशे; (ने) ड्रंक समयमां ज तेनां दुःख छेदाशे. शिशुपाल का व्यनो कवि जे माघ हतो, जेनी विमल कीर्ति साराये जगतमां भमे छे तेना निर्मळ वंशमा जन्मेला धाहिले पद्म श्री चरित रच्युं छे. कवि पार्श्व अने महासती सुरा ई नो दोष विमर्दन करनारो पुत्र, तात नो पौत्र, (अने) दिव्य दृष्टि (एवा उपनाम ) वाळो (घा हिल) पोतानी निर्मळ मतिथी जिनचरणनो भक्त छे. * * 米 ज्यांची भा(पद्म श्री चरित)नो (योग्य) समये शुभ चित्ते स्वाध्याय थशे, त्यांसुधी पहेलांनुं पाप क्षीण थतुं जशे, ने नवुं पाप नहीं बंधाय चतुर्थ संधि समाप्त Jain Education International * * * For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org

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