Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 86
________________ पं० २०८ - २२८ ] जिह लच्छि उविंद किं अन्नासत्तउ छव पढम संधि ॥ घत्ता ॥ रोहिणि चंदहु तिम्व हउँ कंतहु प्राणप्रिय । तेण विरत्त रोवंति निसि परिगलिय ताहि धणसिरिहि विहाणइ कहिउ साहु परितुट्ठी धणसिरि तं मुणेवि अह ती* य वि (?) भोगंतराउ चोरिति जि दुस्सहुँ अलिय आलु "मं रोइ मुंधे " फुसि लोयणाइँ " साहेहि धणावह फुड ँ" कज्जु पभणइ धणावहु नट्ठ-नेहु फुडु तइँ जि वुत्तुं पयडक्खरे हि “मइँ जाणिउ वंधव तुहु वियहु उवएसु दिन्नु णं वुत चोरि सम्माणहि सुंदर - गुण-निहाण 12 बंधु - कलत्तह अवरोप्परु रत्तह विहड़ावेंवि पयडई नेहिं जड़ियइँ जिणभवण-विंव-न्ह्वणच्चणाइँ" कुतिहि वोलिउ ताहि कालु दाऊ दाणु हरिसिय-मणेहिं तं माया सलुन धणसिरीऍ धारेइ" सुदुद्धरु वंभचेरु उज्झयइ विसं व दूरेण भोग तव चरणु चरंति विचित्त- भेउ 20 Jain Education International [१७] १४ रवि उग्गउ निग्गय भवण-वाहि ॥ ९ पलंकहुँ पाडियं देवि पाउँ ।। २१० "वसि वट्टहिँ वंधव मज्झु वे वि” ॥ ११ दोहग्ग- कलंकिङ इत्थि - भाउ ॥ १२ पावेसह तइय भयंकरालु ॥ १३ बहु-अंसुधारे धोवंजणा [14] हूँ" ॥ अंवाडिय काँइ जसोय अज्जु ” ॥ १५ "घरु अम्हहँ मुयउ अभव एहु ॥ १६ कुल- दूसणि चोरी परिहरेहि" ॥ १७ तइँ" जेहउ अन्नु न को वि बहु" ॥ १८ तुहु हिणि लोह - भुयंग - मोरि ॥ १९ अह तायह केरी तु आण” ॥ २२० 18 ॥ घत्ता ॥ ११ अज्जु न जाणउँका विप्रिय ? " ॥ २०८ सवह चित्तइँ" कवड-निहि" । धणसिरि को विउ विहि ॥ २१ [१८] मुणि- दाणइँ तित्थ- पभावणाइँ ॥ २२ घर - वासु मुविणु दुक्ख-जालु ॥ २३ [15] अणगार - दिक्ख पडिवन्न तेहि ॥ २४ आलोइडें संजम - कंखिरीऍ ॥ २५ संजमि" मणु निच्चलु नाइ मेरु ॥ २६ परिहरिय सयल सावज्ज जोग ॥ २७ वंदति नमंति जिणिंद-देउ ॥ २२८ 32 1 विइंदहु. 2 रोवंतिय. 3 पलंकदु. 4 प्पाडिय. 5 प्याउ 6 परितुहिं. 7 येवि. 8 One mora too few. 9 दुसहुँ. 10 मुचे. 11 जांसवरवोवंजणाई. 12 फुडं. 13 मुयई. 14 पुनु. 15 इ. 16 नंदु. 17 voi. 18 तुधु. 19 ज्झाण. 20 चिंतई. 21 °Afg. 22 पडियइ. 23 भाउव्व. 24 ° भवणचणाई. 25 दाउंण. 26 जाणगार. 27 अलोई. 28 कंखीरीए. 29 °वारेड्. 30 सुदुधरु. 31 यंभवेरु, 32 संरमि. For Private & Personal Use Only 5 10 15 20 25 www.jainelibrary.org

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