Book Title: Paumsiri Chariu Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 33
________________ पउमसिरि चरिउ यने स्थाने इ: मइरद्धउ (२/१०५) मइरधयडे (२/३६) गइ (= गय २/११५) आगइ (= आगय २/११५) भुइयलहिं (२।२०४) लइ (= लय ३/१०३) इने ठेकाणे ई अने इंना दाखला पण घणा मळे छे. ते टांकवा निरर्थक छे. ६९. उपरनी जोडणीनी समीक्षाथी एक वात तो देखाई आवे छे के खरोनी जे ध्वनिस्पष्टता संस्कृत अने प्राकृतमां देखाई आवती हती ते ध्वनिस्पष्टता अपभ्रंशमां घसाती चाली छे- एटलुंज नहि पण आ हाथप्रत बतावी आपे छे के तत्कालीन देश्यभाषानी उच्चारणपद्धतिनी असर नीचे लखता लहिआए भाषामां खरोनी तो लगभग दुर्व्यवस्थाज करी नाखी छे. सामान्यरीते अ, इ, उ ने एक बीजामा गमे तेने स्थाने गमे ते स्वर लहिआओ मनफाव्ये मूके ज जाय छे. ए तो कबुल छे के अपभ्रंश लेखको तो अपभ्रंशनी शिष्ट जोडणीने इष्ट गणता ज हशे पण समकालीन खरोच्चारनी जुदी लढणने लीधे नकल करनाराओ जोडणीने अत्यंत विकृत करी देता. आ प्रकारनी विकृतिओ प्रस्तुत प्रतिमां पारावार छे. केटलीकवार दा.त. उ = आ : पीणोराजुयलु (५/३२) आई : तीसु (१/५९) इत्यादि प्रमादो खरोच्चारण प्रत्ये बेदरकारीने लीधे ज उत्पन्न थएली विकृतिओ छे. केटलीक वार हाथप्रतमां औ पण आवे छे : चौगइ (= चउ गइ ४/१७) प्राकृत के अपभ्रंशमां औ खर तरीके नथी एटले आ प्रकारनो खर समकालीन देशभाषानी जोडणीनी असर ज कही शकाय. (आ) व्यंजन विभाग. ६१०. व्यंजनोमां ध्वनिविषयक लढणने लीधे खास करीने नासिक्य व्यंजनोमां 'म' जुदी जुदी रीते ध्वनित थतो हतो. हेमचंद्रे 'मोऽनुनासिको वो वा ।' (सि. हे. ४.३९७) मां आ ध्वनिविकार नोंध्यो छे. आ कारणने लीधे म, म्व, वं, व, य, अ, उं तरीके जुदा जुदा पर्यायो छूटथी लखायेला आखी प्रतिमां मळे छे. ते अभेदनां दृष्टान्तो एटलां बधां छे के टांकवानी अत्रे जरुर नथी. ६११. य श्रुति अने व श्रुतिना आगमने लीधे अकार केटलीक वार य कार के व कार तरीके लखवामां आवे छे. एटले मनो एक वार व थतां तेनो अके य थवो ए मुश्केल बाबत नथी. आ पण ध्वनिने लगती ज बाबत छे. ६१२. कंडिका ६१०मां जणावेल बाबतमांथी ज निष्पन्न थतां केटलांक दृष्टांतो नीचे प्रमाणे छे: म नो यः सुंयरइ (१/२०५) व नो य : सुयंन (= सुवन्न १/१९७) तिहुय' (४/१३४) भुयणिं (२/१०८) वगेरे. म नो व : वावणाहं (१/११८) सवाण (२/१२७) अत्थवj (३/७५) अस्थवेइ (३/७५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124