Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 36
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य मूकेला छे ते पण कदाच आ प्रथा- आर्छ खरूप छे. स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल वगेरे बधाय अपभ्रंश कविओ पोतानां नामथी संधिनी छेवटनी घत्ताने अंकित करे छे. जेम धाहिले 'दिव दि ट्ठि' नाम धारण कयु छे, ते प्रमाणे धनपाले 'स र ख ती संम व ए नाम धारण कयु छे. आ प्रथाओ मध्यकालीन देश्यभाषानां पदोमां अने काव्योमा केटलेक अंशे दृष्टिगोचर थाय छे तेनी नोंध अत्रे लेवी घटे छे. ७. धाहिल काव्यान्ते पोताना विष थोडीक माहिती आपे छे. 'अब्भत्थिएण दूलज्जियाए' : (४/१९१ ) बतावे छे के तेणे दूलज्जिया (?=*दुर्लभा+आर्यिका) नामनी साध्वीना कहेवाथी आ काव्यनी रचना करी. ४/१९५ प्रमाणे शिशुपालकवधकाव्यना कवि माघ ना वंशमां ते जन्म्यो हतो. तेना पितानुं नाम ४/१९७ प्रमाणे पार्श्व हतुं अने ४/१९८ प्रमाणे तेना दादानु नाम ताय (=तात!) हतुं. एक 'वंदित्तासूत्र'नो टीकाकार पार्श्व छे. ते आज पार्श्व होय तो पार्श्वनी टीका दशमी शताब्दीमां रचाएली होई, धाहिले आ काव्यनी रचना पण तेज अरसामा करी होवी जोइए. बीजुं आ काव्यनी ताडपत्रनी हाथ - प्रति लगभग विक्रमना बारमा सैकानी अन्तनी छे. पण ए प्रति कोई जूनी प्रति उपरथी उतारवामां आवी छे. एटले प्रति-परंपरानी दृष्टिए पण आ काव्य दशमी शताब्दीना अरसामां रचायानी वातने टेको मळे छे. ८. आ उपरांत मारे काइ कहेवार्नु रहेतुं नथी. मारा मित्र प्रो० भायाणीए आ काव्यना व्याकरणनी चर्चा, छंदोनी विगत अने भाषान्तर आप्यां छे. गूजराती, राजस्थानी अने पश्चिमी हिंदीनां भाषातत्त्वोनो अभ्यास, अपभ्रंशना अभ्यास साथे संकळाएलो छे. भाषानो इतिहास प्रजाना मानसना इतिहास साथे संकळाएलो छे. ए दृष्टिए भाषानां तत्त्वोनो अभ्यास प्रजानां सामाजिक तत्त्वोनी समज बलवत्तर बनावे छे. प्रो. वेन्ड़े 'Lan. guage' नामे पोताना पुस्तकमा जणावे छे: Language does not exist apart from the people who think and speak it; its roots go deep into the consciousness of each one of us......The task of the philologist comes to an end when he has recognized in language the play of social forces and the influence of history." आ दृष्टिए गूजरात अने राजथान अने मुख्यतया पश्चिम हिंदनी संस्कृतिमां अने भाषाविधानमा रहेला तत्त्वोनुं दर्शन रवा इच्छनार अभ्यासीए अपभ्रंशनो अभ्यास करवो आवश्यक छे. जेने माटे भोजदेवे सरखतीकण्ठाभरण'(२-१३ )मां कहुं छे : अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गूर्जराः ॥ ते अपभ्रंशना अभ्यास प्रसे गूर्जरोए आदर बताववो सर्वथा योग्य अने उपयुक्त छै. मधुसूदन मोदी पउम. प्र.2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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