Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 42
________________ प्रासङ्गिक भूमिका आ उपरांत बीजी अने चोथी संधिना आरंभे एक एक, त्रीजी संधिना आरंमे त्रण अने काव्यने अंते एक प्राकृत गाथा मूकेली छे. पउ म सि रि च रि उ मां योजायेला छंदो विशे खास लक्ष खेंचे तेवी बे हकीकत छे. पहेलं तो ए के सामान्यतः कडवकबद्ध अपभ्रंश काव्योमा दरेक कडवक पूरतो एक ज छंद योजायो होय छे. पण शरुआतमां नोंध्यु तेम प उ म सि रि च रि उ ना १,२, १,९,३,७ अने ३,१० एटला कडवकमां एकना एक कडवकमां अमुक भाग पद्धडिकामां अने बाकीनो भाग वदनकमां रचायेलो छे. ए ज रीते १,४ अने ३,५ ए कडवकोमा पद्धडिका अने कोई अष्टमात्रिक छंदनु, अने २,२० ए कडवकमां पद्धडिका अने मदनावतारनुं मिश्रण मळे छे. बीजं ए के संधिबद्ध काव्योमां सामान्यतः एवं जोवा मळे छे के संधिना आरंभक पद्यमा जे छंद योजायो होय ते छंदमां ज ते संधिना दरेक कडवकनी घत्ता रचायेली होय छे. पण प उ म सि रिच रि उ मां दरेक संधिमा अमुक कडवकनी पत्ताओ चालु करतां जरा जुदा एक के वधारे छंदमां रचायेली छे. बीजी संधिनी घत्ताओमां तो पांच जुदा जुदा छंदो वपरायेला जोई शकाय छे. मुद्रित ग्रंथपाठमां केटलीक पंक्तिओमा एकाद' मात्रा तूटे छे. पण ते ते स्थळे नजीवा फेरफारथी छंदनी शुद्धि जाळवी लेवाय तेम छे. चरित प्रकारनां काव्योनुं स्वरूप खरूपदृष्टिए अपभ्रंश पौराणिक काव्यो अने चरितकाव्यो वच्चे बहु फरक नथी. पौराणिक काव्योमां विषयनो विस्तार खूब एटले संधिसंख्या पण पचासथी सो- सवासो सुधीनी, ज्यारे चरितकाव्योमां विषयविस्तार मर्यादित अने संधिसंख्या बेथी बार सुधीनी; बाकी संधि-कडवक-प्रासबद्ध पंक्तियुगल : ए रचनाप्रकार बन्नेमा समान. पण दरेक चरितकाव्य संधिबद्ध ज होय तेवू नथी. हरिभद्रकृत णे मि णा ह च रि उ सळंग रड्डा छंदमां छे. कचित चरितकाव्योना आरंभमां के अंते प्राकृत गाथा भूकवामां आवे छे. पउ म सि रि च रि उनो आरंभ तो वदनक छंदनी चार पंक्तिथी थाय छे. पण पहेली सिवायनी त्रण संधिओने आरंभे एक अथवा वधारे मांगलिक गाथा मूकेली छे अने आखा काव्यने अंते फलश्रुति आपती एक गाथा पण मूकेली छे. खरूपदृष्टिए बीजी कशी विशिष्टता नथी. विषयतरीके कोई पौराणिक के धार्मिक व्यक्तिनी जीवनकथा होय छे, अने प्रतिपादन तेम ज उद्देश बोधप्रधान होय छे, एटले सामान्यतः धर्मकथानां प्रकारना आ काव्यो कही शकाय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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