Book Title: Paumsiri Chariu Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 39
________________ पउमसिरि चरित ध्वनि विषयक लाक्षणिकताओ तरीके म्व, व, व एवी अनिश्चित जोडणी परथी सूचवातुं द्विखरान्तर्गत म्० नुं उच्चारण, द्विखरान्तर्गत व नो लोप अने र पाछला अवयव तरीके होय तेवा युक्ताक्षरोमा र नी जाळवणी (उ. त. प्राणप्रिय)-आ व्रण गणावी शकाय. विभक्तिरूपो मां (१) पुंल्लिंग- नपुंसकलिंग अकारांत अंगोना तृतीया एकवचनना प्रत्यय ०इं (हाथप्रतमा ई० के ई) अने °एण (ऍण), तेम ज तृतीया एकवचनमा ये वापरी शकातो सप्तमी एकवचननो ०६; पंचमी तेम ज षष्ठी एकवचनमा दु अने °ह अने बहुवचनमा हँ; सप्तमी एकवचनमा ०१ तेम ज हिं (हि); (२) अकारांत नपुंसकलिंग विस्तारित अंगोनां प्रथमा - द्वितीया एकवचनमां कचित उँ प्रत्यय; (३) अंगने अनुरूप षष्ठीनो प्रत्यय-अकारांत अंगोमां एकवचन अने बहुवचनमां अनुक्रमे °ह अने ह, इकारांतमां हि अने हिँ, उकारांतमां हु अने हुँ; (४) बीजा पुरुष सर्वनामर्नु षष्ठी एकवचन- पांच वार मळतुं रूप 'तुद्ध' (आ भ वि सत्तक हा मां पण वपरायेलं छे): आटली वीगतो लक्षमां लेवा जेवी छे. आ ख्याति क रूपो मां, (१) वर्तमान पहेलो पुरुष एकवचनमा वि (ह. प्र.)= विं, मि तेमज उँ बन्ने प्रत्ययो; (२) °ए विकरणवाळां संख्याबंध रूपो-हसेइ, भणेइ वगेरे (छंदनुं कारण न होवा छतां ये वपरायेलां); (३) त्रीजो पुरुष बहुवचनमां °न्ति तेमज हिं; (४) आज्ञार्थ बीजो पुरुष एकवचनमा हि (अहि अने एहि), इ अने कचित ज °उ अने °सु; (५) भविष्यमां ह. विकरणवाळां रूपोनो अभाव; (६) संबंधक भूतकृदंतमा एवि (ऍवि, इवि), अवि, एप्पिणु, एविणु अने उः आदली विशिष्टताओ छे. कोई कोई प्राकृत रूपो पण वपरायां छे. आमां तृतीया माटे त्रण प्रत्ययो, षष्ठी अने सप्तमी माटे बे प्रत्ययो; वर्तमान पहेलो पुरुष एकवचन अने त्रीजो पुरुष बहुवचनमां बे प्रत्ययो; आज्ञार्थ बीजो पुरुष एकवचनमा चार जेटला प्रत्ययो अने संबंधक भूतकृदंतमा छ - सात प्रत्ययो- आ लक्षणो हेमचंद्र- उदाहृत संचयलक्षी शिष्टमान्य नागर अपभ्रंशनां सूचक छे. बीजे पक्षे संबंधक भूतकृदंता इ प्रत्ययनो अने ह विकरणवाळां भविष्यरूपोनो अभाव, कचित ज मळतुं आज्ञार्थ बीजा पुरुष एकवचन- °उकारांत रूप; संबंधक भूतकृदंतनां इउकारांत रूपो; अंगने अनुरूप षष्ठीना प्रत्ययो: आ लाक्षणिकताओ श्वेतांबर के गौर्जर अपभ्रंशमा विशेषे करीने जोवा मळे छे. उलटपक्षे °इवाळां तृतीयानां रूपो अने वकार - लोप ए दिगंबर अपभ्रंश माटे सामान्यतः लाक्षणिक मनाय छे. आथी प उ म सिरि च रि उ ना अपभ्रंशमां भिन्न भिन्न लक्षणोनी केटलीक सेळमेळ होवानुं जोई शकाय छे. पण हेमचंद्रना अपभ्रंशमां देखातां अर्वाचीन लक्षणोथी प्रस्तुत कृतिनो अपभ्रंश अस्पृष्ट होवाथी मात्र भाषाना धोरणे पण तेने ईसवी बारमी सदी पहेलां मूकी शकाय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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