Book Title: Paumsiri Chariu Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 38
________________ प्रसाङ्गिक भूमिका परिणामे अपभ्रंशन खरूप अंशत: प्रवाही रह्यु. पण कोई पण भाषा साहित्यभाषा तरीके प्रचलित थाय एटले तेनुं स्वरूप पण स्थिरता पकड्या विना न रहे. आ प्रकारचें स्थिर खरूप पामेलो अपभ्रंश ते नागर अपभ्रंश. तेनी विशिष्टता ए के तेमां अमुक प्रमाणमा स्थानिक बोलीओनां रूपो पण वापरी शकातां, एटले के तेनुं खरूप संचयलक्षी (eclectic) हतुं. हेमचंद्राचार्यनो अपभ्रंश ते आ नागर अपभ्रंश छे. पण बारमी सदीमां अर्वाचीन भूमिका सिद्ध थई चूकी होवाथी सिद्ध हे म नो अपभ्रंश अर्वाचीनतानी - अने स्थानिक प्रभावने लक्षमा लेतां गुर्जरदेशनी बोलीनी-छांटथी मुक्त नथी. ___ पण अपभ्रंशनो जेम प्रचार वधतो गयो तेम तेमां पुष्कळ प्रमाणमा स्थानिक बोलीना अंशो पेसता गया. एटले नागर अपभ्रंश ज प्रदेश अनुसार विशिष्ट नामे ओळखावा लाग्यो. ई. स. ९०० आसपास रुद्रट अपभ्रंशना देशविशेष प्रमाणे भूरि भेद होवानुं जणावे छे, ते आ लौकिक अपभ्रंशोने उद्देशीने. प्राचीन समयथी ज सौराष्ट, सिंध अने मारवाड साथे आभीरो अने गुर्जरोनो संबंध हतो. एटले समय जतां गुर्जरोनो विशिष्ट अपभ्रंश विकास पाम्यो होवानुं समजी शकाय तेम छे. अने ई. स. १००० आसपास भोज गूर्जरोने पोतानो अपभ्रंश होवार्नु जणावे छे. आ गौर्जर अपभ्रंशने गुजराती अने मारवाडी साथे निकटमां निकटनो संबंध छे. .. उपलब्ध अपभ्रंश साहित्यमा स्पष्ट भेद पाडी शकाय तेवी बोलीओनां लक्षण नथी मळतां. पण दिगंबरोए रचेली अपभ्रंश कृतिओनी भाषा अन श्वेताम्बरोए रचेली अपभ्रंश कृतिओनी भाषा वच्चे अमुक ज रूपो अने प्रत्ययो वापरवानो अने तेवां बीजां रूपो अने प्रत्ययो उपयोगमां न लेवानो भेद ध्यान खेंचे तेवो छे. आ भेद तद्दन स्पष्टरेख होय ए तो शक्य ज नथी, कारण के विशाळ प्रदेश पर 'सब-की-बोली'नी जेम वपराती साहित्यभाषामां भिन्नदेशीय तत्त्वोनी सेळभेळ अनिवार्य बने छे. तो ये उपर का ते प्रमाणे दिगंबरो अने श्वेताम्बरोना अपभ्रंशमां पोतपोतानी विशिष्टताओ एक वलणरूपे जोवामां आवे छे. दिगम्बर अपभ्रंशनी केटलीक लाक्षणिकताओ व्रजभाषा वगेरे जेवी पश्चिमी हिंदी बोलीओमां ऊतरी आवी छे, ज्यारे श्वेतांबर अथवा गौर्जर अपभ्रंशनी केटलीक लाक्षणिकताओ गुजराती अने मारवाडीमां उतरी आवी छे. धनपालनी भ वि सत्त कह अने पुष्पदन्तनी कृतिओ दिगंबर अपभ्रंश रजू करे छे. हरिभद्रनुं णे मिणा ह च रि उ, सोमप्रभना कु मार पाल प्रति बो ध ना अपभ्रंश खंडो वगेरेमां गौर्जर अपभ्रंश मळे छे. पउमसिरिचरिउनो अपभ्रंश __ घणी अशुद्धिवाळी एक हाथप्रत परथी प्रस्तुत प उ म सिरि च रि उ नो ग्रंथपाठ तैयार करवामां आव्यो छे, एटले तेना अपभ्रंशनुं तात्त्विक पृथक्करण करीने खरूपलक्षण बांधवा जेटलो आधार आपणी पासे नथी, छतां केटलांक स्थूल लक्षणोने तारवी काढी पउमसिरि चरि उ नो अपभ्रंश कया वलणनो छे ते सहेजे कही शकाय तेम छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124