Book Title: Paumsiri Chariu
Author(s): Dhahil Kavi, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

Previous | Next

Page 32
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य ६४. केटलीक वार अनुखारो न जोइए त्यां मुकेला छे : हंउं, हउं, नमींय, भुयणं, जयपुंगणं वगैरे. ६५. समासमा उ के इ ( जे सामान्यत: शब्दान्ते आवे ) ते वच्चे आवे छे. उ : दुत्तरुभव (१/११ ) ; वसंतुपुरा ० (१ / २७ ); रयणायरुसमु (१ / २९) आणंदिउजण० (१/७०) अइदुक्करुतव० (१/७५); धम्मघोसुमुणि (१ / ११०); घरुयारु (=वरु बारु, मुद्रित पाठमां घरु सारु १ / १३१) कोवुल्हसि उसेउ ( १ / १९६) अवगाहिउ सायरु (२/४) वगेरे. इ: महिम (१ / ११६) निहालणिदोस (१ / १४७) सिरिकमलु (१/१५४) बहुदेसिपसिद्ध (२/४) जिणसासणिपंकय (२ / १६) दाहिणकरिसंठिउ (२/१३) नहियलि (४ / ११८). समासना अन्तर्गत अवयवमां सप्तमीनो अर्थ सूचित थतो होय त्यां समासनी व सप्तमी विभक्तिना प्रत्यय इ ने आ प्रमाणे मूकवानी वृत्ति जणाई आवे छे. ९६. प्रतिमां अने ठेकाणे इ अने इ ने ठेकाणे अ मालम पडे छे : अने ठेकाणे इ : रणंगिण (१ / १६४) उबविणाउ (२ / २३) चित्तिभवीणि (२ / १५९) रुंरुणियतारिरविगेज्जमाल ( २ / २१९ ) : कोई वार दीर्घ ई मूकवामां आवे छे : दीयावणाई (१ / ११८) पलीकिय (१ / १५९) वगेरे. इने ठेकाणे अ : पणमेप्पणु ( १ / ६) वन्न (१ / २५) विवहूसव (१ / २५) ससिरोवारु (२ / १३७; २ / १३८ ) सरिस ( - शिरीष २ / १३८) सललिसितु (२ / १६६) वणवेसिउ ( ३ / ७६) निवड (३ / १००) मउडि (३ / १०१) कारववि (४ /७७) ससिपाल कवु (४ / १९६) निवन्न (२ / १२६) वगेरे. कोईक वार तो अ अने इ नुं परिवर्तन विकृत अने अर्थमा गोटाळो उत्पन्न करे तेनुं होय छे. जेमके किर (२/११५) ते करि = 'हाथी'ने माटे छे. ९७. आज प्रमाणे उ ने स्थाने अ अने अने स्थाने उ दृष्टिगोचर थाय छे : उने ठेकाणे अ : दप्पुद्धर ( १/४०) उम्मक्क ( १ / ७८) पत्त (= पुत्त १ / १८८) कंचइज्जत (२/२५२) महुतु (२/८७ ) महुत (२ / १६१ ) सकोमल (२ / १७१) वगेरे. अने ठेकाणे उ : सुपुरिसुहं ( १/२५) जंगमु ( १ / १२० ) मडफुरु (१/१६४) वुत्तु (१/१८३) कलुतु (२/३२) मुतगइदु (२ / २२२) पाडुलच्छि (२/६७) समुज्जिय (४/५) वगेरे. उने स्थाने अकारनो स्वीकार करतां अनो य थवाना दाखला पण छे : पासाय (१/३८) ६८. इने स्थाने य अने य ने स्थाने इ वारंवार मुकाय छे. इने स्थाने य: मंथरगय (२/६३); रय (२ / ६८ ) अवलोयइउ (३/८५) निय ( = निइ ४ / ८८ ) लय (४/७५) कय ( = कइ ४ / १९५ ) इत्यादि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124