Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 27
________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य समाधितन्त्र' अपर नाम 'समाधिशतक' में ध्यान तथा समाधि द्वारा आत्म-तत्त्व को पहचानने के उपायों का सुन्दर विवेचन है। इस पर प्रभाचन्द्र, पर्वतधर्म तथा दशचन्द्र. की टीकाएँ और मेघचन्द्र की एक वृत्ति भी मिलती है। __ ई० ६०६ में जिनभद्रगणि ने आगम शैली में जैनयोग विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की, जो 'ध्यानशतक' नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें ध्यान, आसन, प्राणायाम एवं अनुप्रेक्षाओं का सुन्दर विवेचन है। इस पर हरिभद्रसूरिकृत टीका भी मिलती है। ईसा की छठी-सातवीं शती में योगीन्दु देव ने परमात्मप्रकाश एवं योगसार' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इन दोनों ग्रन्थों में आचार्य कुन्दकुन्दकृत मोक्षप्राभृत के अनुरूप आत्मा के त्रिविध स्वरूपों की विस्तृत चर्चापूर्वक जीव को संसार के विषयों से हटाकर, आत्मोन्मुख बनाने के उपायों का समुचित विवेचन है। मध्ययुग (ई. ८वीं से १४वीं शती) मध्ययुग में देश में अनेक साधना पद्धतियाँ प्रचलित थीं, परन्तु हठयोग एवं तंत्रयोग का प्रभाव अधिक था। जैनाचार्यों में मध्यकाल से तुलनात्मक अध्ययन प्रारम्भ हुआ। वैदिक एवं बौद्धयोग के साथ समन्वय स्थापित करना तथा उन्हें दृष्टि में रखते हुए अपने वैशिष्ट्य का उपस्थापन करना मध्यकाल के जैनाचार्यों की विशेषता है। इतना ही नहीं, उनके पारिभाषिक अथवा उनके समानान्तर शब्दों का प्रयोग भी उक्त युग में किया गया। उस काल में रचित जैनयोग-साहित्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - ई० ८वीं शती में एक ऐसे महान् रत्न का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में वर्णित योगपद्धतियों एवं परिभाषाओं का जैनपद्धतियों से समन्वय स्थापित कर जैनयोग-परम्परा को एक नई दिशा प्रदान की। इस महान् विभूति का नाम है - हरिभद्रसूरि। इनके मुख्य ग्रन्थ हैं - योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक' एवं षोडशक। इनका विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा। ई० ८.६वीं शती में आचार्य गुणभद्र द्वारा आत्मानुशासन' नामक कृति योगाभ्यास की पूर्वपीठिका के रूप में प्रस्तुत की गई। इसमें मन को बाह्य विषयों से हटाकर शुद्ध आत्मस्वरूप की ओर प्रवृत्त करने की प्रेरणा दी गई है। ई० १०वीं शती में अमितगति ने सुभाषितरत्नसंदोह तथा योगसारप्राभृत' नामक दो रचनाएँ लिखीं, जिनमें नैतिक व आध्यात्मिक उपदेश के साथ मुनि एवं श्रावकों के व्रत, ध्यान, चारित्र आदि की चर्चा है। ई० १०२६ (वि० स० १०८६) का मुनि पद्मनन्दिकृत 'ज्ञानसार'" भी योगपरक एक महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है, जिसका वर्ण्य विषय शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव के अनुसार ही है। ॐ is १. ध्यानशतक, विनयसुन्दरचरण ग्रन्थमाला. जामनगर, वि० सं० १६४७ परमात्मप्रकाश और योगसार, रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बम्बई. ई० सन् १६१५ योगबिन्दु, जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १६२१ योगदृष्टिसमुच्चय, विजयकमल केशरग्रन्थमाला, खम्भात, वि० सं० १६६२ योगविंशिका, ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, १६२७ योगशतक, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद. १६५६. षोडशक, ऋषभदेव जी केसरीमल जी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, वीरनिर्वाण सं० २४६२ आत्मानुशासन, जैनसंस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, वि० सं० २०१८ (क) सुभाषितरत्नसंदोह, निर्णयसागर प्रेस. बम्बई. ई० सन् १६०३ (ख) सुभाषितरत्नसंदोह. जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, ई० सन् १९७७ १०. योगसारप्राभृत, (संपा०) जुगलकिशोर मुख्तार, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, सन् १९६६ ११. ज्ञानसार, दिगम्बर जैन पुस्तकालय कापडिया भवन, सूरत, वी०नि० सं० २४७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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