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न्याय-वीपिका
हैं। इसलिए इतना मावही लक्षण करना ठीक है कि गो व्यावतक हैमिली हुई वस्तुओं से किसी एकलो जदा कराता है मालाण है। चाहे वह साधारण धर्म हो या चाहे असाधारण धर्म हो या धर्म भी न हो। यदि वह लक्ष्यका लक्ष्यतयोंसे व्यावृत्ति कराता. है तो लक्षण है और यदि नहीं कराता है तो वह लक्षण नहीं है इस तरह प्रकल-प्रतिष्ठित लक्षणके लक्षण को ही न्यायदीपिका में अनुप्राणित किया गया है !
प्रमानका सामान्यलक्षण...
दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रपम कणादने प्रमाणका सामान्य लक्षण निर्दिष्ट किया है । उन्होंने निर्दोष शानको विद्या-प्रमाण कहा है ! न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमके न्यायमूवमें तो प्रमाणसामान्यका लक्षण उपलब्ध नहीं होता। पर उनके टीकाकार मात्स्यायनने प्रषषय 'प्रमाम' शब्दसे फलित होनेवाले उपसम्बिसाधन (प्रमाकरण)को प्रमाणसामान्यका लक्षण सूचित किया है । उसोतकर', जयन्तभट्ट'मादि नैयायिकों ने वास्पारन के द्वारा सूचित किये इस उपनम्पिसाधनरूप प्रमाकरणको ही प्रमाण का सामान्य लक्षण स्वीकृत किया है । यद्यपि न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयनने यथार्यानुभवको प्रमाण कहा है तथापि वह उन्हें प्रमाकरणरूपही इष्ट है। इतना जरूर जान पड़ता है कि उनपर अनुभूतिको प्रमाण मानने वाले प्रभाकर और उनके प्रनुयायी विद्वानोंका प्रभाव है। क्योंकि उदयनके
१ 'मदुष्टं विद्या' सोषिकसू. ६-२-१२ । २ 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि समालपानिर्वचनसामर्थ्यात् बोधव्यम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणा
भिधानो हि प्रमाणशब्दः ।' भ्याया• पृ० १८ । ३ 'उपलब्धिहेतु: प्रमाणं..... "यदुपलग्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।'- न्यायश. पृ. ५। ४ 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणाभिधायिनः प्रमाणशम्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते । न्यायमं० पृ. २५ । ५ 'यथार्यानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यने ।'-यापकु० ४.१ ।