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तीसरा प्रकाश
२२१ म याति' न च तत्रास्त्रे न पश्नादन नांशवन् ।
जहाति पूर्व नाधारमही व्यसनसन्ततिः । or -वह गोदि हाम: गोवानि नितरों से पवि सर्वथा भिन्न, नित्य, एफ और अनेकवृत्ति है तो जय एक गो उत्पन्न हुई तब उसमें गोम्ब कहाँ से प्राता है ? अन्यत्र से प्रा नहीं सकता, क्योंकि उसे निष्किप माना है। उत्पन्न होने के पहले गोत्व वहां रहता नहीं, क्योंकि गोत्व सामान्य गौ में ही रहता है। अन्यथा, देश भी गोत्व के सम्बन्ध से गौ हो जायेगा। गोपिण्ड के साय उत्पन्न भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसे नित्य माना है, अन्यथा उसके प्रनित्यता का प्रसङ्ग प्रायगा । अंशवान है नहीं, क्योंकि उसे निरंश स्वीकार किया 10 है। नहीं तो सांशत्व का प्रप्त पायेगा । यदि वह पूर्व पिण्ड को छोड़ कर नूतन गो में प्राता है तो यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पूर्व पिण्ड का त्याग नहीं माना है। अन्यथा पूर्व गोपि3गौ, प्रगो-पोत्वशून्य हो जायगा, फिर उसमें 'गो' स्ववहार नहीं हो सकेगा। इस तरह गोत्वादि सामान्य को व्यक्ति से सर्वथा भिन्न, नित्य 15 और एक मानने में अनेक विध दूषण प्रसक्त होते हैं। प्रतः स्यूल और कम्जुनीवा प्रादि प्राकार के तथा सास्ना प्रादि के देखने के बाद ही यह 'घट है' 'यह गो है' इत्यादि अनुगत प्रत्यय होने से सदश परियामरूप ही घटस्व-गोवादि सामान्य है और वह कञ्चित् भिन्नअभिन्न, नित्य-अनित्य और एक-अनेक कप है। इस प्रकार के 20
१ नावाति' पाठान्तरम् ।
२ कारिका का शब्दार्थ यह है कि 'गोत्वादि सामान्य दुसरी गो में अन्यत्रसे जासा नहीं, न वहाँ रहता है, न पीछे पैदा होता है, न अशावाला है, और न पहले के अपने प्राश्रयको छोड़ता है फिर भी उसकी स्थिति हैबह सम्बद्ध हो जाता है। यह कैसी व्यसनसन्तति—कदाग्रहपरम्परा है।'