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न्याय दीपिका
इस कारण जीव द्रव्य की पर्याय की अपेक्षा से भेव है, भेव और अभेद के मानने में हैं--प्रमाणयुक्त हैं ।
कार में भी जो प्रवृत्ति होती हैं वह अपने gष्य के लिए ही होती है। अपेक्षा से प्रभेद है और मनुष्य तथा देव इस प्रकार भिन्न भिन्न नयो की कोई विरोध नहीं है,
दृष्टि से दोनों प्रामाणिक
के भी मिट्टी के
पिण्डाकार कर
इसी तरह मिट्टीरूप जीव विनाश, कम्बुग्रोवर प्रादि आकार की उत्पत्ति और मिट्टीरूप की स्थिति होती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि अजीव द्रव्य में भी उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनो होते हैं। स्वामी समन्तभद्र के मत का अनुसरण करने वाले वामन ने भी कहा है कि समीचीन उपदेश से पहले के प्रज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के तत्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में जो समर्थ प्रात्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है। जैसा कि उसके इस वाक्य से प्रकट है "न शास्त्रमसद्रव्यं वयंवत्" श्रर्थात् शास्त्र असद् द्रच्त्रों में जीव प्रज्ञान स्वभाव के दूर करने श्रीर तत्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में समर्थ नहीं है उसमें ) प्रयोजनवान् नहीं है- कार्यकारी नहीं है । इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वस्तु प्रमाणवाक्य का इसलिए वह श्रयं सिद्ध होती है। अतएव इस प्रकार अनुमान करना चाहिए कि समस्त पदार्थ प्रकिान्त स्वरूप है, क्योंकि वे सत् हैं, जो अनेकान्तस्वरूप नहीं है वह सत् भी नहीं है, जसे अकाश
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विषय है और
का कमल ।
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जो
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शङ्का मद्यवि कमल श्राकाश में नहीं है तथापि तालाब में है । अतः उससे ( कमल से ) 'सत्य' हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है ?
समाधान --- यदि ऐसा कहो तो यह कमल अधिकरण विशेषकी अपेक्षा से सत् और असत् दोनों रूप होने से धनेकान्तस्वरूप
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