Book Title: Nyayadipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 351
________________ २२६ न्याय-दीपिका रूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता । इसीलिए "दूसरे नय के विषय की ममेक्षा रखने बासे नय को सत् नय—सम्यक् नय अथवा सामान्य नय" कहा है। जैसे—यह कहना कि 'सोना लामो'। यहाँ ख्यायिकनप के अभिप्राय से 'सोना 5 लामो' के कहने पर साने बालर का, कुण्डल, केयर इनमें से किसी को भी ले माने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनेरूप से कड़ा प्रावि में कोई भेद नहीं है। पर जब पर्यायायिकनय की विवक्षा होतो है तब तव्याथिक नय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यापार्षिक मय को अपेक्षा से 'कुण्डल साम्रो' यह कहने पर लाने वाला कहा 10 प्रादि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा प्रादि पर्याय से कुण्डल पर्याय भिन्न है। प्रतः प्रत्याधिक नय के अभिप्राय (विचक्षा) सोमा काम्वा एकरप ही है, पर्यायाधिक नय के प्रभिप्राप से कञ्चित् अनेकरूप ही है, मोर कम से दोनों नयों के मभिप्राय से कञ्चित् एक और अनेकरूप है। एक साथ दोनों नयों के अभि15 प्राय से कथंचित् प्रवक्तव्यस्वरूप है। क्योंकि एक साय प्राप्त हुये वो नयों से विभिन्न स्वरूप वाले एकत्व और अनेकत्य का विचार अथवा कथन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कि एक साथ प्राप्त हुये दो शब्दों के द्वारा घट के प्रधानभूत भिन्न स्वरूप वाले रूप भोर रस इन दो धमों का प्रतिपादन नहीं हो सकता है। अतः एक साध प्राप्त दम्यार्मिक 20 और पर्यायाधिक वोनों नयों के अभिप्राय से सोना कथंचित प्रात्तव्य स्वरूप है। इस प्रवक्तव्यस्वरूप को प्याथिक, पर्यायायिक मौर इक्यापिक-पर्यायाथिक इन सीन नयों के अभिप्राय से क्रमशः प्राप्त हए एकत्वादि के साथ मिला बेने पर सोना कयंचित् एक और प्रवक्तव्य है, कचित् अनेक और प्रवक्तव्य है तथा कयंचित् एक, 25 अनेक और प्रवक्तव्य है, इस तरह तीन नाभिप्राय और हो जाते

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